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धर्मशास्त्र का इतिहास
अन्य चार सूत्रों में किया है। इतना ही नहीं, ६।३।४ में जो बात कही गयी है वह पूर्वपक्ष मात्र है और अन्य चार सूत्रों में जैमिनि का दृष्टिकोण मीमांसासूत्र का सिद्धान्त है। जिन सूत्रों में जैमिनि के नाम आये हैं, वे केवल पाँच हैं, जिनमें शबर ने केवल चार के लिए 'आचार्य' शब्द का प्रयोग किया है। किन्तु यह एक बहुत ही हलका तर्क है कि चार सूत्रों वाले जैमिनि एवं एक सूत्र वाले जैमिनि में अन्तर है । 'आचार्य' या 'भगवान्' जैसे उपाधिसूचक शब्दों के प्रयोगों के विषय में लेखकों के व्यवहारों में अन्तर है । कुमारिल ने जैमिनि के लिए 'आचार्य' या 'भगवान्' की उपाधि नहीं जोड़ी है और एक स्थान पर तो ऐसा लिख दिया है ( तन्त्रवार्तिक, पृ० ८६५ ) कि जैमिनि असारभूत सूत्र लिखते हैं ।
वेदान्तसूत्र के जिन सूत्रों में जैमिनि के नाम आये हैं (यथा-- ११२१२८, १/२/३१, १1३1३१, १/४/१८, ३१२१४०, ३।४।२ ३ ४ ११८, ३ ४ ४०, ४।३।१२, ४ ४ ५, ४|४|११ ) उनमें शंकराचार्य ने 'आचार्य' की उपाधि जोड़ी है ( केवल ३ | ४ |४० में ऐसा नहीं हो सका है), यद्यपि जैमिनि के बहुत से प्रमेय वेदान्तसूत्र के प्रणेता बादरायण को एवं स्वयं शंकर को मान्य नहीं हैं । ३ । ४ । ४० में शंकराचार्य ने जैमिनि एवं बादरायण दोनों के लिए 'आचार्य' की उपाधि नहीं दी है। इस विषय में ऐसा तो किसी ने नहीं कहा है कि ३|४|४० में 'आचार्य' शब्द न आने से उसमें उल्लिखित बादरायण अन्य सूत्रों में उल्लिखित बादरायण से भिन्न हैं । एक अन्य स्थान ( वे० सू० ४।१।१७ पर) में शंकराचार्य का कथन है कि जैमिनि एवं बादरायण दोनों इस बात को स्वीकार करते हैं कि काम्य प्रकार के 'कुछ कर्म ब्रह्मज्ञान की प्राप्ति में किसी प्रकार सहायक नहीं होते। इससे यह प्रकट होता है कि शंकर के मत से जैमिनि ने ब्रह्मविद्या के उदय के विषय में विचार किया है। दूसरे तर्क के विषय में यह कहा जा सकता है कि ६ | ३ | ४ में किसी भी प्रकार से पूर्वपक्ष नहीं प्रकट होता । उसी अधिकरण में पूर्वपक्ष प्रथम सूत्र में लिखित है, यथा- 'अग्निहोत्र या दर्श - पूर्णमास जैसे कृत्यों को सम्पादित करने का वही अधिकारी है जो उन्हें पूर्णता एवं समग्रता के साथ कर सके ।' दूसरे सूत्र में सिद्धान्त का दृष्टिकोण व्यक्त है, यथा - 'नित्य कर्मों में यह कोई आवश्यक नहीं है कि सभी कृत्य सम्पादित किये जायें।' एक तीसरा सूत्र ऐसा कहता है कि स्मृति में ऐसा घोषित है कि यदि मुख्य कृत्य सम्पादित न किया जाय तो यह अपराध है, अतः मुख्य कृत्य अपरिहार्य है और उसे अवश्य करना चाहिए। इसके उपरान्त चौथा सूत्र आता है जिसमें जैमिनि का नाम आया है। इस पर शबर का भाष्य बहुत संक्षिप्त और अस्पष्ट है । इन सूत्रों (६।३।१-७) पर टुप्टीका पृथक्-पृथक् भाष्य नहीं उपस्थित करती, और व्याख्या में इसने जैमिनि का नाम छोड़ दिया है तथा इस अधिकरण के विषय में जो अन्तिम बात कही गयी है वह प्रस्तुत लेखक द्वारा उपस्थापित चौथे सूत्र की व्याख्या को और बल देती है । इस बात में किसी को कोई सन्देह नहीं है कि ५ से लेकर ७ तक के सूत्र सिद्धान्त के दृष्टिकोण का समर्थन करते हैं। इस विवाद में विशेष जाने की कोई आवश्यकता नहीं है। निष्कर्ष यह है कि पू० मी० सू० में पाँच बार उल्लिखित जैमिनि एक ही व्यक्ति है और जिसने पूर्व मीमांसा पर लिखा है वह उपस्थित पू० मी० सू० के लेखक से भिन्न व्यक्ति है । स्वयं प्रो० शास्त्री यह स्वीकार करते हैं कि पाँच संकेतों में चार में, जहाँ जैमिनि स्पष्ट रूप से अंकित हैं, उनके विचार सिद्धान्त के विचार हैं । पू० मी० सू० के ६।२३ एवं १२।१।५६ सूत्र कुछ विशिष्ट हैं । दोनों विषयों में अधिकरण केवल एक सूत्र का है, जो सिद्धान्ती दृष्टिकोण है और वहाँ जैमिनि स्पष्ट रूप से उल्लिखित हैं । पू० मी० सू० के सूत्र ३|११४ में जैमिनि बादरि ( ३|१|३ ) से भिन्न हैं और अधिकरण को पूर्ण करने के लिए दो और सूत्र जोड़ दिये गये हैं । पू० मी० सू० के ८1३1७ में जैमिनि का विचार बादरि के सूत्र ८|३|६ के विचार का विरोधी है, वह सिद्धान्ती दृष्टिकोण है और पू० मी० सू० के लेखक के दृष्टिकोण को व्यक्त करने के लिए कोई पथक सत्र भी नहीं है ।
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