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गुजरात देशके सूरत शहरका दिग्दर्शन । [२३
बाहरसे सुरतमें आकर बिकता था । रुईका कपड़ा खूब बुना जाता था । एक गरीब आदमी १ रुईकी आंटी (९ टांक तौलमें) बुन लेता था तो उसको ) मिल जाते थे । सुरतके बंदरमें १००० - १२००
टनके लानेवाले जहाज़ हमेशः तय्यार रहते थे । इस कदर व्यापार था कि सूरतके बाज़ार में २ लाख रुपयेका रोज़ सौदा होता था ।
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यहां पर इतना कह देना अनुचित न होगा कि यह भारत दो-ढाई सौ
वर्ष में कुछका कुछ हो गया । उस वक्त जब परदेशके व्यापारी यहांसे कपड़ा ले जाते थे तब आज यहां ही कपड़ा आता है । यहांका बुना तो शायद ही कहीं जाता हो। उस वक्त सारा भारत अपने कारीगरोंके बनाये हुए कपड़ोंसे ही अपनेको ढकता था । और यह भी नहीं था कि मोटा माल ही बनता हो किन्तु महीनसे महीन और बढ़िया से बढ़िया कपड़ा भी यहां बनता था । इसके सिवाय यूरुप आदि देशके व्यापारी यहांसे लाखों रुपयों का कपड़ा प्रतिमास अपने देशको भिजवाते थे, उनको भी पूरा करता था । आज यह अपनी कारीगरीको खो बैठा है । इसका कारण केवल आलस्य है । आलस्यसे आज यह ज़रा ज़रासी चीज़ के लिये परदेशका मुंहताज़ हो गया है । जब कि उद्यमके बलसे एक छोटासा जापान प्रदेश अपने लिये सब चीजें आप बनाता है । इतना ही नहीं, पर अपना बना करोड़ोंका माल बाहर बिक्रीके लिये भेजता है । जैसे आजकल बम्बई व्यापारमें प्रसिद्ध है ऐसे ही मुगलोंके जमाने में सूरत प्रसिद्ध था ।
इस वक्त कम्पनीके सिवाय प्राइवेट अंग्रेज भी बहुत आये और व्यापार करने लगे । औरंगजेब बादशाहके वक्त में ता० ५ जनवरी १६६४ को मराठों का सरदार शिवाजी सूरतको लूटने आया। उस वक्त
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