________________
गाथा १]
प्रथमाधिकारः "वक्खाणउ" व्याख्यातु। स कः ? "आयरिओ" आचार्यः । कं ? "सत्थं" शास्त्रं । “पच्छा" पश्चात् । किं कृत्वा पूर्व ? “वागरिय" व्याकृत्य व्याख्याय । कान् ? "छप्पि" षडप्यधिकारान् । कथंभूतान् ? "मङ्गलणिमित्तहेउ परिमाणं णाम तह य कत्तारं" मङ्गलं निमिचं हेतु परिमाणं नाम कतृ संज्ञामिति । इति गाथाकथितक्रमेण मङ्गलायधिकारषट्कमपि ज्ञातव्यम् । गाथापूर्वार्धेन तु सम्बन्धाभिधेयप्रयोजनानि सूचितानि । कथमिति चेत्?– विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मस्वरूपादिविवरणरूपो वृत्तिग्रन्थो व्याख्यानम् । व्याख्येयं तु तत्प्रतिपादकसूत्रम् । इति व्याख्यानव्याख्येयसम्बन्धो विज्ञेयः । यदेव व्याख्येयसूत्रमुक्त तदेवाभिधानं वाचकं प्रतिपादकं भएयते, अनन्तज्ञानाद्यनन्तगुणाधारपरमात्मादिस्वभावोऽभिधेयो वाच्यः प्रतिपाद्यः । इत्यभिधानाभिधेयस्वरूपं बोधव्यम् । प्रयोजनं तु व्यवहारेण पद्रव्यादिपरिज्ञानम् , निश्चयेन निजनिरञ्जनशुद्धात्मसंवित्तिसमुत्पन्ननिर्विकारपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादरूपं स्वसंवेदनज्ञानम् । परमनिश्चयेन पुनस्तत् फलरूपा केवलज्ञानाद्यनन्तगुणाविनाभूता निजात्मोपादानसिद्धानन्तसुखावाप्तिरिति । एवं नमस्कारगाथा व्याख्याता ।
अथ नमस्कारगाथायां प्रथमं यदुक्त जीवद्रव्यं तत्सम्बन्धे नवाधिकारान्
व्याख्यान करे ॥ १ ॥” इस गाथा में कहे. हुए मङ्गल आदि ६ अधिकार भी जानने चाहिये । गाथा के पूर्वार्ध से सम्बन्ध, अभिधेय तथा प्रयोजन सूचित किया है । कैसे सूचित किया है ? इसका उत्तर यह है कि निर्मल ज्ञान दर्शनरूप स्वभाव-धारक जो परमात्मा है, उसके स्वरूप को विस्तार से कहने वाली जो वृत्ति है. वह तो व्याख्यान है और उसके प्रतिपादन करने वाले जो गाथा सूत्ररूप हैं वह व्याख्येय ( व्याख्या करने योग्य ) हैं । इस प्रकार व्याख्यानव्याख्येयरूप “सम्बन्ध” जानना चाहिये । और जो व्याख्यान करने योग्य सूत्र है वही अभिधान अर्थात् वाचक कहलाता है। तथा अनन्त ज्ञानादि अनन्त गुणों का आधार जो परमात्मा आदि का स्वभाव है वह अभिधेय है अर्थात् कथन करने योग्य विषय है । इस प्रकार "अभिधान-अधिधेय का" स्वरूप जानना चाहिये । व्यवहारनय की अपेक्षा से 'पद्रव्य आदि का जानना' इस ग्रन्थ का प्रयोजन है। और निश्वयनय से अपने निर्लेप शुद्ध आत्मा के ज्ञान से प्रगट हुआ जो विकाररहित परम आनन्दरूपी अमृत रस का
आस्वादन करने रूप जो स्वसंवेदन ज्ञान है, वह इस ग्रन्थ का प्रयोजन है। परम निश्चयनय से उस आत्मज्ञान के फलरूप-केवलज्ञान आदि अनन्त गुणों के बिना न होने वाली और निज आत्मारूप उपादान कारण से सिद्ध होने वाली ऐसी जो अनन्त सुख की प्राप्ति है, वह इस ग्रन्थ का प्रयोजन है । इस तरह पहली नमस्कार-गाथा का व्याख्यान किया है ।
अब 'नमस्कारगाथा में जो प्रथम ही जीवद्रव्य कहा गया है, उस जीवद्रव्य के
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org