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गाथा ३२] द्वितीयोऽधिकारः
[८९ तियणवदी य दोगिण पंचेव । बावरणहीण बियसयपयडिविणासेण होति ते सिद्धा ॥१॥ इति गाथाकथितक्रमेणाष्टचत्वारिंशदधिकशतसंख्याप्रमितोत्तरप्रकृतिभेदेन तथा चासंख्येयलोकप्रमितपृथिवीकोयनामकर्माधुत्तरोत्तरप्रकृतिरूपेणानेकभेद इति 'जिणक्खादो' जिनख्यातो जिनप्रणीत इत्यर्थः ॥३१॥ एवमासूवव्याख्यानगाथात्रयेण प्रथमस्थलं गतम् ।
अतः परं सूत्रद्वयेन बन्धव्याख्यानं क्रियते । तत्रादौ गाथापूर्वार्धेन भावबन्धमुत्तरार्धेन तु द्रव्यबन्धस्वरूपमावेदयति :
बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो। कम्मादपदेसाणं अएणोएणपवेसणं इदरो ॥ ३२ ॥ बध्यते कर्म येन तु चेतनभावेन भावबन्धः सः ।
कात्मप्रदेशानां अन्योन्यप्रवेशनं इतरः ॥ ३२ ॥ व्याख्या- 'बज्झदि कम्म जेण दु चेदणभावेण भावबन्धो सो' बध्यते कर्म येन चेतनभावेन स भाववन्धो भवति । समस्तकर्मबन्धविध्वंसनसमर्थाखण्डैकप्रत्यक्षप्रतिभासमयपरमचैतन्यविलासलक्षणज्ञानगुणस्य, अभेदनयेनानन्तज्ञानादि
१४८ प्रकृतियों के नाश होने से सिद्ध होते है ।' (सिद्ध भक्ति गाथा ८) इस गाथा में कहे हुए क्रम से एक सौ अड़तालीस १४८ उत्तरप्रकृतियाँ हैं और असंख्यात लोकप्रमाण जो पृथिवीकाय नामकर्म आदि उत्तरोत्तर प्रकृति भेद हैं उनकी अपेक्षा कर्म अनेक प्रकार का है। 'जिणक्खादो' यह श्री जिनेन्द्रदेव का कहा हुआ है ॥ ३१॥
इस प्रकार आस्रव के व्याख्यान की तीन गाथाओं से प्रथम स्थल समाप्त हुआ।
अब इसके आगे दो गाथाओं से बन्ध का व्याख्यान करते हैं। उसमें प्रथम गाथा के पूर्वार्ध से भावबन्ध और उत्तरार्ध से द्रव्यबन्ध का स्वरूप कहते हैं
गाथार्थ :-जिस चेतनभाव से कर्म बँधता है वह भावबन्ध है और कर्म तथा आत्मा के प्रदेशों का परस्पर प्रवेश अर्थात् कर्म और आत्मप्रदेशों का एकमेक होना द्रव्यबंध है॥३२॥
वृत्त्यर्थ :-'बज्झदि कम्मं जेण दु चेदणभावेण भावबंधो सो' जिस चैतन्य भाव से कर्म बँधता है, वह भावबंध है। समस्त कर्मबंध नष्ट करने में समर्थ, अखण्ड एक प्रत्यक्ष प्रतिभास रूप परम-चैतन्य-विलास-लक्षण का धारक ज्ञान गुण की या अभेदनय की अपेक्षा
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