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गाथा ३५ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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सुखसुधास्वादवले समस्त शुभाशुभरागादिविकल्पनिवृत्तित्रतम्, व्यवहारेण तत्साधकं हिंसानृतास्तेयाब्रह्मपरिग्रहाच्च यावज्जीवनिवृत्तिलक्षणं पञ्चविधं व्रतम् । निश्चयेनानन्तज्ञानादिस्वभावे निजात्मनि सम् सम्यक् समस्तरागादिविभाव परित्यागेन तल्लीनतच्चिन्तनतन्मयत्वेन अयनं गमनं परिणमनं समितिः, व्यवहारेण तद्वहिरङ्गसहकारिकारणभूताचारादिचरणग्रन्थोक्ता ईर्याभाषैपरणादाननिक्षेपोत्सर्ग संज्ञाः पञ्च समितयः । निश्चयेन सहजशुद्धात्मभावनालक्षणे गूढस्थाने संसारकारणरागादिभयात्स्वस्यात्मनो गोपनं प्रच्छादनं झम्पनं प्रवेशनं रक्षणं गुप्तिः, व्यवहारेण बहिरङ्गसाधनार्थं मनोवचनकायव्यापारनिरोधो गुप्तिः । निश्चयेन संसारे पतन्तमा - त्मानं धरतीति विशुद्धज्ञान दर्शनलचणनिजशुद्धात्मभावनात्मको धर्मः, व्यवहारेण तत्साधनार्थं देवेन्द्र नरेन्द्रादिवन्द्यपदे धरतीत्युत्तमक्षमामार्दवार्जव सत्यशौचसंयमतपस्त्यागाकिञ्चन्यब्रह्मचर्यलक्षणो दशप्रकारो धर्मः ।
तद्यथा- प्रवर्तमानस्य प्रमादपरिहार्थं धर्मवचनं । क्रोधोत्पत्तिनिमित्ताविषह्याक्रोशादिसंभवेऽकालुष्योपरमः क्षमा । शरीरस्थितिहेतुमार्गणार्थं परकुलान्युप
शुभ राग आदि विकल्पों से रहित होना व्रत है । व्यवहारनय से उस निश्चय व्रत को साधने वाला हिंसा, झूठ, चोरी ब्रह्म और परिग्रह से जीवन भर त्यागरूप पांच प्रकार का व्रत है । निश्चयन की अपेक्षा अनन्तज्ञान आदि स्वभाव धारक निज आत्मा है, उसमें 'सम्' भले प्रकार, अर्थात् समस्त रागादि विभावों के त्याग द्वारा आत्मा में लीन होना, आत्मा का चिन्तन करना, तन्मय होना आदिरूप से जो अयन कहिये गमन अर्थात् परिणमन सो 'समिति' है । व्यवहार से उस निश्चय समिति के बहिरंग सहकारी कारणभूत आचार चारित्र विषयक ग्रंथों में कही हुई ईर्ष्या, भाषा, एषणा, श्रादाननिक्षेपण, उत्सर्गं ये पांच समितियां हैं। निश्चय से सहज - शुद्ध श्रात्म भावनारूप गुप्त स्थान में संसार के कारणभूत र गादि के भय से अपने आत्मा का जो छिपाना, प्रछादन, कंपन, प्रवेशन, या रक्षा करना है, सो गुप्त है । व्यवहार से बहिरंग साधन के अर्थ जो मन, वचन, काय की क्रिया को रोकना सो गुप्त है । निश्चय से संसार में गिरते हुए आत्मा को जो धारण करे ( बचावे) सो विशुद्ध ज्ञान दर्शन लक्षणमयी निज शुद्ध आत्मा की भावनास्वरूप धर्म है । व्यवहारनय से उसके साधनके लिये इन्द्र चक्रवर्ती आदि से जो बंदने योग्य पद है उसमें पहुँचाने वाला उत्तम क्षमा मार्दव, आर्जव, सत्य, शौच, संयम, तप, त्याग आकिंचन्य तथा ब्रह्मचर्य रूप दश प्रकार का धर्म है ।
वे धर्म इस प्रकार हैं, जो समिति पालन में प्रवृत्तिरूप हैं, उनके प्रमाद को दूर करने के लिये धर्म का निरूपण किया गया है। क्रोध उत्पन्न होने में निमित्तीभूत ऐसे असह्य दुर्वचन
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