Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 265
________________ २४४ ] गाथा - संख्या ४८ ४६ ५० ५१ ५२ ५३ ५४ ५५ ५६ ५७ ५८ वृहद्द्रव्यसंग्रह-गाथाः गाथा मा मुज्झह मा रजह मा दूसह इट्ठणि सु । थिरमिच्छहि जइ चित्त ं विचित्तमाणप्पसिद्धीए ॥ पणतीस सोलछप्पणचउदुगमेगं च जवह ज्झाएह । परमेट्ठिवाचयाणं अरणं च गुरुवएसेण ॥ ट्टचदुघाइकम्मो दंसण सुहणाणवीरियमईओ । सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचितिजो ॥ णट्ठट्ठकम्मदेहो लोयालोयस्स जाओ दट्ठा । पुरिसाया अप्पा सिद्धो झाह लोयसिहरत्थो || दंसणा पहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे । पं परं च जुजइ सो आयरिश्र मुणी ओ | जो रयणत्तयजुत्तो खिच्चं धम्मोपदेस णिरदो । सो उवज्झा अप्पा जदिवरवसहो णमो तस्स ॥ दंसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारितं । साधयदि णिच्चसुद्ध स मुणी णमो तस्स || जं किंचिव चितं तो गिरीहवित्ती हवे जदा साहु | लक्षूण य एतं तदाहु तं तस्स शिच्छयं ज्झाणं ॥ मा चिट्ठह मा जंप मा चिंतह किं विजेण होइ थिरो । अप्पा पम्मि रो इणमेव परं हवे ज्भाणं ॥ तवसुदवदवं चेदा ज्झाणरहधुरंधरो हवे जम्हा | तम्हा तत्तियणिरदा तल्लद्धीए सदा होह || दव्वसंगहमिणं मुणिणाहा दोससंचयचुदा सुदपुराणा । सोधयं तु तत्तधरेण मिचन्दमुखिणा भणियं जं ॥ Jain Education International 1981 600= For Personal & Private Use Only पृष्ठ संख्या १६३ २०२ २०५ २११ २१३ २१५ २१६ २१८ २१६ २२२ २३२ www.jainelibrary.org

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