Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 241
________________ २२०] वृहद्रव्यसंग्रहः [गाथा ५६ मा चेष्टत मा जल्पत मा चिन्तयत किम् अपि येन भवति स्थिरः । आत्मा आत्मनि रतः इदं एव परं ध्यानं भवति ॥ ५६ ॥ व्याख्या-'मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि' नित्यनिरञ्जननिष्क्रियनिजशुद्धात्मानुभूतिप्रतिबन्धकं शुभाशुभचेष्टारूपं कायव्यापारं, तथैव शुभाशुभान्तबहिर्जल्परूपं वचनव्यापारं, तथैव शुभाशुभविकल्पजालरूपं चित्तव्यापारं च किमपि मा कुरुत हे विवेकीजनाः ! 'जेण होइ थिरो' येन योगत्रयनिरोधेन स्थिरो भवति । स कः ? 'अप्पा' आत्मा। कथम्भूतः स्थिरो भवति ? 'अप्पम्मि रो' सहजशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावपरमात्मतत्त्वसम्यक्त्रद्धानज्ञानानुचरणरूपाभेदरत्नत्रयात्मकपरमसमाधिसमुद्भूतसर्वप्रदेशाहादजनकसुखास्वादपरिणतिसहिते निजात्मनि रतः परिणतस्तल्लीयमानस्तच्चित्तस्तन्मयो भवति । 'इणमेव परं हवे ज्झाणं' इदमेवात्मसुखस्वरूपे तन्मयत्वं निश्चयेन परमुत्कृष्टं ध्यानं भवति । तस्मिन् ध्याने स्थितानां यद्वीतरागपरमानन्दसुखं प्रतिभाति, तदेव निश्चयमोक्षमार्गस्वरूपम् । तच्च पर्यायनामान्तरेण किं किं भण्यते तदभिधीयते । तदेव शुद्धात्मस्वरूपं, तदेव परमात्मस्वरूपं, तदेवैकदेशव्यक्तिरूपविवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चयनयेन स्वशुद्धात्मसम्वित्तिसमुत्पन्नसुखामृतजलसरोवरे रागादिमलरहितत्वेन वृत्त्यर्थ:-" मा चिट्ठह मा जंपह मा चिंतह किंवि" हे विवेकी पुरुषो ! नित्य निरञ्जन और क्रियारहित निज-शुद्ध-आत्मा के अनुभव को रोकनेवाली शुभ-अशुभ चेष्टारूप काय की क्रिया को तथा शुभ-अशुभ-अन्तरङ्ग-बहिरङ्गरूप वचन को और शुभ-अशुभ विकल्प समूहरूप मन के व्यापार को कुछ भी मत करो । “जेण होइ थिरो" जिन तीनों योगों के रोकने से स्थिर होता है । वह कौन ? 'अप्पा" आत्मा । कैसा होकर स्थिर होता है ? "अप्पम्मि रओ" स्वाभाविक शुद्ध-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव जो परमात्मतत्त्व के सम्यकश्रद्धान-ज्ञान-आचरणरूप अभेदरत्नत्रयात्मक परम-ध्यान के अनुभव से उत्पन्न, सर्व प्रदेशों को आनन्ददायक ऐसे सुख के अनुभवरूप परिणति सहित स्व-आत्मा में रत, तल्लीन, तचित्त तथा तन्मय होकर स्थिर होता है । 'इणमेव परं हवे उझाणं" यही जो आत्मा के सुखस्वरूप में तन्मयपना है, वह निश्चय से परम उत्कृष्ट ध्यान है। उस परमध्यान में स्थित जीवों को जो वीतरागपरमानन्द सुख प्रतिभासित होता है वही निश्चय मोक्षमार्ग का स्वरूप है। वह अन्य पर्यायवाची नामों से क्या २ कहा जाता है, सो कहते हैं । वही शुद्ध आत्म-स्वरूप है, वही परमात्मा का स्वरूप है, वही एक देश में प्रकटतारूप विवक्षित एक देश शुद्ध-निश्चयनय से निज-शुद्ध-आत्मानुभव से उत्पन्न सुखरूपी अमृत-जल के सरोवर में राग आदि मलों से रहित होने के कारण परमहंस-स्वरूप है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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