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२३६ ] लघुद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ५-६ अरसमरूवमगंधं अव्व चेयणागुणमसद्द ।
जाण अलिंगग्गहणं जीवमणिदिट्ठ-संहाणं ॥५॥ अर्थ-'जीवं' जीव को 'अरसमरूवमगंधं अव्वत्तं चेयणागुणमसह अलिंगग्गहणं अणिदिट्ठ-संहाणं' रस-रहित, रूप-रहित, गंध-रहित, अव्यक्त (स्पर्श-रहित), शब्द-रहित; अलिंग-ग्रहण (लिंग द्वारा ग्रहण में नहीं आने वाला), अनिर्दिष्ट संस्थान वाला (जिसका कोई संस्थान निर्दिष्ट नहीं है) और चेतन-गुण-वाला 'जाण' जानो ।।५।।
वएण-रस-गंध-फासा विज्जते जस्स जिणवरुद्दिट्ठा ।
मुत्तो पुग्गलकाओ पुढवी पहुदी हु सो सोढा ॥ ६ ॥ अर्थ-'जस्स' जिसके 'वएण-रस-गंध-फासा' वर्ण, रस, गन्ध तथा स्पर्श 'विज्जते' विद्यमान हैं, 'सो मुत्तो पुग्गलकाओ' वह मूर्तिक पुद्गल-काय 'पुढवी पहुदी हु सोढा' पृथ्वी प्रभृति (आदि) छः प्रकार का 'जिणवरुट्ठिा' श्रीजिनेन्द्रदेव द्वारा कहा गया है ।। ६॥
पुढवी जलं च छाया चउरिदियविसय कम्म परमाए ।
छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिंदेहिं ॥ ७॥ अर्थ-'पुढवी जलं च छाया चरिंदियविसय कम्म परमाणू' १-पृथ्वी, २-जल, ३-छाया, ४-(नेत्रेन्द्रिय के अतिरिक्त शेष ) चार इन्द्रियों के विषय ( वायु, शब्द आदि ), ५-कर्मवर्गणा, ६-परमाणु, 'छविहभेयं भणियं पुग्गलदव्वं जिणिंदेहिं' श्री जिनेन्द्रदेव ने पुद्गल द्रव्य को (ऐसे) छः प्रकार का कहा है ॥ ७ ॥
गईपरिणयाण३ धम्मो पुग्गलजीवाण गमण-सहयारी ।
तोयं जह मच्छाणं अच्छंता णेव सो णेई ॥८॥ अर्थ-.-'गइपरिणयाण धम्मो पुग्गलजीवाण गमणसहयारी' गमन से परिणत पुद्गल और जीवों को गमन में सहकारी धर्म-द्रव्य है, 'तोयं जह मच्छाणं' जैसे मछलियों को (गमन में ) जल सहकारी है, 'अच्छंता णेव सो णेई' (किन्तु ) गमन न करते हुए ( ठहरे हुये पुद्गल व जीवों को ) वह (धर्म-द्रव्य ) गमन नहीं कराता है ।। ८ ।।
४ठाणजुयाण अधम्मो५ पुग्गलजीवाण ठाण-सहयारी ।
छाया जह पहियाणं गच्छांता णेव सो धरई ।। ६ ॥ अर्थ-'ठाणजुयाण अधम्मो पुरगलर्जीवाण ठाण-सहयारी' ठहरे हुये पुद्गल और जीवों को ठहरने में सहकारी अधर्म-द्रव्य है, 'छाया जह पहियाणं' जैसे छाया पन्थियों को ठहरने में सहकारी है, 'गच्छंता णेव सो धरई' गमन करते हुये (जीव व पुद्गलों को) वह (अधर्म-द्रव्य ) नहीं ठहराता है ।। ६ ॥ १ स.सा.गा. ४६,२ वृ.द्र.सं.गा. १७, ३ 'परियाण' अपि पाठ, ४वृ.द्र.गा. १८, ५ 'अहम्मो' अपि पाठ।
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