Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 256
________________ -[लघुद्रव्यसंग्रहः ] - छद्दव्व पंच अत्थी सत्त वि तच्चाणि णव पयत्था य । भंगुप्पाय-धुवत्ता णिहिट्ठा जेण सों जियो जयउ ॥१॥ अर्थ-'जेण' जिनके द्वारा 'छहव्व' छः द्रव्य, 'पंच अत्थी' पाँच अस्तिकाय, 'सत्त वि तच्चाणि' सात तत्त्व, 'णव पयत्था य' नव पदार्थ और 'भंगुप्पाय-धुवत्ता' व्ययउत्पाद-ध्रौव्य, 'णिहिट्ठा' निर्देश किये गये हैं, 'सो जिणो' वे श्री जिनेन्द्रदेव 'जयउ' जयवन्त रहो ॥१॥ जीवो पुग्गल . धम्माऽधम्मागासो तहेव' कालो य । दव्वाणि कालरहिया पदेश बाहुल्लदो अथिकाया य ॥२॥ अर्थ-'जीयो पुग्गल धम्माऽधम्मागासो तहेव कालो य दव्वाणि' जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल - द्रव्य हैं, 'कालरहिया पदेश बाहुल्लदो अस्थिकाया य' काल को छोड़ कर शेष उक्त पांच द्रव्य, बहुप्रदेशी होने के कारण, अस्तिकाय हैं ॥२॥ जीवाजीवासवबंध संवरो णिजरा तहा मोक्खो। तच्चाणि सत्तं एदे सपुण्ण-पाचा पयस्था य॥३॥ अर्थ-'जीवाजीवासवबन्ध संवरो णिजरा तहा मोक्खो तच्चाणि सत्त' जीव, अनीव, आस्रव, बन्ध, संवर, निर्जरा तथा मोक्ष-सात तत्त्व हैं; 'एदे सपुण्ण-पावा पयत्था य' ये ( उक्त सात तत्त्व) पुण्य व पाप सहित नव पदार्थ है ॥३॥ १जीवो होइ अमुत्तो सदेहमित्तो सचेयणा कत्ता। भोचा सो पुण दुविहो सिद्धो संसारिनो णाणा ॥ ४ ॥ अर्थ-'जीवी होइ अमुत्तो सदेहमित्तो सचेयणा कत्ता भोत्ता' जीव ( द्रव्य) अमूर्तिक, स्वदेह-प्रमाण, चेतना सहित, कर्ता और भोक्ता है, 'सो पुण दुविहो' वह (जीव) दो प्रकार का है, 'सिद्धो संसारिओ' सिद्ध और संसारी; 'णाणा' (संसारी जीव ) नाना प्रकार के हैं ॥४॥ १-कुछ अन्तर से वृहद्रव्यसंग्रह गाथा २ से मिलती है । *'अ(s)त्थिकाया' इत्यपि पाठः । Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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