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२३४ ] वृहद्र्व्यसंग्रहः
[ गाथा ५८ ____ अत्र ग्रन्थे 'विवक्षितस्य सन्धिर्भवति' इति वचनात्पदानां सन्धिनियमो नास्ति । वाक्यानि च स्तोकस्तोकानि कृतानि सुखबोधनार्थम् । तथैव लिङ्गवचनक्रियाकारकसम्बन्धसमासविशेषणवाक्यसमाप्त्यादिदूषणं तथा च शुद्धात्मादिप्रतिपादनविषये विस्मृतिदूषणं च विद्वद्भिर्न ग्राह्यमिति ।
एवं पूर्वोक्तप्रकारेण “जीवमजीवं दव्वं" इत्यादिसप्तविंशतिगाथाभिः षद्रव्यपञ्चास्तिकायप्रतिपादकनामा प्रथमोधिकारः । तदनन्तरं "आसव बन्धण" इत्येकादशगाथाभिः सप्ततवनवपदार्थप्रतिपादकनामा द्वितीयोऽधिकारः । ततः परं "सम्मदंसण" इत्यादिविंशतिगाथाभिर्मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा तृतीयोऽधिकारः॥ इत्यधिकारत्रयेनाष्टाधिकपञ्चाशत्सूत्रैः श्रीनेमिचन्द्रसिद्धान्तिदेवैविरचितस्य द्रव्यसंग्रहाभिधानगन्थस्य सम्बन्धिनी श्रीब्रह्मदेवकृतवृत्तिः समाप्तो ।
इस ग्रन्थ में 'विवक्षित विषय की संधि होती है' इस वचन-अनुसार पदों की संधि का नियम नहीं है । (कहीं पर संधि की है और कहीं पर नहीं)। सरलता से बोध कराने के लिये वाक्य छोटे-छोटे बनाये गये हैं । लिंग, वचन, क्रिया, कारक, सम्बंध, समास, विशेषण और वाक्य-समाप्ति आदि दूषण एवं शुद्ध-आत्मा आदि तत्त्वों के कथन में विस्मरण (भूल) आदि दूषण इस ग्रन्थ में हों, उन्हें विद्वान् पुरुष ग्रहण न करें।
इस तरह “जीवमजीवं दळां” इत्यादि २७ गाथाओं का 'षट द्रव्यपंचास्तिकायप्रतिपादकनामा' प्रथम अधिकार है। तदनन्तर "आसव बंधण" इत्यादि ११ गाथाओं का 'सप्ततत्त्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा' दूसरा अधिकार है । उसके पश्चात् “सम्मसण" आदि बीस गाथाओं का 'मोक्षमार्गप्रतिपादकनामा' तीसरा अधिकार है।
इस प्रकार श्रीनेमिचन्द्राचार्य सिद्धान्तिदेव विरचित तीन अधिकारों की ५८ गाथाओं वाले द्रव्यसंग्रह ग्रंथ की श्रीब्रह्मदेवकृत संस्कृत-वृत्ति
तथा उसका हिन्दी अनुवाद समाप्त हुआ ।
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