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गाथा १०-१४] लघुद्रव्यसंग्रहः
[२३७ १अवगासदाणजोग्गं जीवादीणं वियाण आयासं ।
जेण्हं लोगागासं २अल्लोगागासमिदि दुविहं ॥ १० ॥ अर्थ-'अवगासदाणजोगं जीवादीगणं वियाण आयासं जेण्ह' जो जीव आदि द्रव्यों को अवकाश देने योग्य है, उसको श्री जिनेन्द्रदेव द्वारा कहा हुआ आकाश द्रव्य जानो, 'लोगागासं अल्लोगागासमिदि दुविह' लोकाकाश और अलोकाकाश ( इन भेदों से आकाश) दो प्रकार का है ॥ १०॥
३दव्वपरियट्टजादो जो सो कालो हवेइ ववहारो।
लोगागासपएसो एक्केक्काणु य परमट्ठो ॥ ११ ॥
अर्थ-'दव्वपरियट्टजादो जो सो कालो हवेइ ववहारो' जो द्रव्यों के परिवर्तन से जायमान है; वह व्यवहार-काल है; 'लोगागासपएसो एक्केक्काणू य परमट्ठो' लोकाकाश में प्रदेश रूप सेस्थित एक-एक कालाणु परमार्थ (निश्चय) काल है ॥ ११॥
४लोयायासपदेसे एक्केक्के५ जे ट्ठिया हु एक्केक्का ।
रयणाणं रासीमिव ते कालाणू असंखदव्वाणि ॥ १२ ॥
अर्थ-'लोयायासपदेसे एक्कक्के जे ट्ठिया हु एक्केक्का रयणाणं रासीमिव' जो लोकाकाश के एक-एक प्रदेश पर, रत्नों के ढेर के समान, (परस्पर भिन्न २ होकर) एक-एक स्थित हैं; 'ते कालाणू असंखव्वाणि' वे कालाणू असंख्यात द्रव्य हैं ॥ १२ ॥
६संखातीदा जीवे धम्माऽधम्मे अणंत प्रायासे ।
संवादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति णो काले ॥ १३ ॥ अर्थ-'संखातीदा जीवे धम्माऽधम्मे' एक जीव में, धर्म (द्रव्य) में तथा अधर्म (द्रव्य) में असंख्यात (प्रदेश) हैं, 'अणन्त अायासे' आकाश में अनन्त (प्रदेश) हैं, 'संखादासंखादा मुत्ति पदेसाउ संति पुद्गल में संख्यात, असंख्यात २' (अनंत) प्रदेश हैं; 'णो काले' काल में (प्रदेश )नहीं हैं (अर्थात् कालाणु एक प्रदेशी है, उसमें शक्ति या व्यक्ति की अपेक्षा से बहुप्रदेशीपना नहीं है) ॥ १३॥
. ७जावदियं आयासं अविभागीपुग्गलाणुववृद्ध।
तं खु पदेसं जाणे सव्वाणुट्ठाणदाणरिहं ॥ १४ ।।
अर्थ-'जावदियं अायासं अविभागीपुग्गलाणुवट्टद्ध तं खु पदेसं जाणे' अविभागी पुद्गलाणु से जितना आकाश रोका जाता है, उसको प्रदेश जानों; 'सव्वाणुहाणदाणरिहं' (वह प्रदेश) सब (पुद्गल) परमाणुओं को स्थान देने में समर्थ है ॥ १४॥ १-वृ.द्र.सं. गाथा १६ । २-'अलोगागास' इत्यपि पाठः । ३-वृ.द्र.सं.गा. २१ कुछ अंतर से । ४-वृ.द्र. सं.गा. २२ । ५-'एक्क्के' इति पाठान्तरः । ६-वृ.द्र.सं.गाथा २५ का रूपान्तर । ७-वृ.द्र सं.गा. २७ ।
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