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गाथा ५६ ]
तृतीयोऽधिकारः
पश्चादभ्यासवशेन स्थिरीमते चिचे सति शुद्धबुद्वैकस्वभावनिजशुद्धात्मस्वरूपमेव ध्येयमित्युक्त' भवति । निष्पृहवचनेन पुनर्मिध्यात्वं वेदत्रयं हास्यादिषटकक्रोधादिचतुष्टय रूपचतुर्दशाऽभ्यन्तरपरिग्रहेण तथैव क्षेत्रवास्तुहिरण्यसुवर्णधनधान्य दासीदाखकुप्यभाण्डाऽभिधानदशविधवहिरङ्गपरिगृद्देण च रहितं ध्यातृस्वरूपमुक्त ं भवति । एकाग्रचिन्तानिरोधेन च 'पूर्वोक्तविविधध्येयवस्तुनि स्थिरत्वं निश्चलत्वं ध्यानलक्षणं भणितमिति । निश्चयशब्देन तु प्राथमिकापेक्षया व्यवहाररत्नत्रयानुकूलनिश्चयो ग्राह्यः, निष्पन्नयोग पुरुषापेचया तु शुद्धोपयोग लचयत्रिव चितैकदेशशुद्धनिश्चयो गााः । विशेषनिश्चयः पुनरगं वच्यमाणस्तिष्ठतीति सूत्रार्थः ॥ ५५॥ अथ शुभाशुभमनोवचनकायनिरोधे कृते सत्यात्मनि स्थिरो भवति तदेव परमध्यानमित्युपदिशति :
मा चिट्ठह मा जंप मा चिन्तह किंविं जेण होइ थिरो । reer अप्पम्म रम्रो इणमेव परं इवे ज्याखं ॥ ५६
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अपेक्षा से जो सविकल्प अवस्था है, उसमें विषय और कषायों को दूर करने के लिये तथा चित्तको स्थिर करने के लिये पञ्चपरमेष्ठी आदि परद्रव्य भी ध्येय होते हैं । फिर जब अभ्यास से चित्त स्थिर हो जाता है तब शुद्ध-बुद्ध एकस्वभाव निज-शुद्ध- आत्मा का स्वरूप ही ध्येय होता है । 'निस्पृह' शब्द से मिध्यात्व, तीनों वेद, हास्य, रति, अरति, शोक, भय, जुगुप्सा, क्रोध, मान, माया और लोभ इन चौदह अन्तरङ्ग परिग्रहों से रहित तथा क्षेत्र, वास्तु, हिरण्य, सुवर्ण, धन, धान्य, दासी, दास, कुप्य और भांड नामक दश बहिरङ्ग परिग्रहों से रहित, ध्यान करनेवाले का स्वरूप कहा गया है । 'एकाग्र चिन्ता निरोध' से पूर्वोक्त नाना प्रकार के ध्यान करने योग्य पदार्थों में स्थिरता और निश्चलता को ध्यान का लक्षण कहा है। 'निश्चय' शब्द से, अभ्यास प्रारम्भ करनेवाले की अपेक्षा व्यवहाररत्नत्रय के अनुकूल निश्चय ग्रहण करना चाहिये और ध्यान में निष्पन्न पुरुष की अपेक्षा शुद्धोपयोगरूप विवक्षितैकदेशशुद्धनिश्चय ग्रहण करना चाहिये । विशेष निश्चय आगे कहा जाने वाला है । इस प्रकार सूत्र का अर्थ है ॥ ५५ ॥
( ध्याता पुरुष ) शुभ - अशुभ मन-वचन-काय का निरोध करने पर आत्मा में स्थिर होता है । वह स्थिर होना ही परम ध्यान है, ऐसा उपदेश देते हैं :
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गाथार्थ :- ( हे भव्यो ! ) कुछ भी चेष्टा मत करो ( काय की क्रिया मत करो ), कुछ भी मत बोलो और कुछ भी मत चिन्तवन करो ( संकल्प-विकल्प न करो ) जिससे आत्मा निजात्मा में तल्लीन होकर स्थिर होजावे, आत्मा में लीन होना ही परमध्यान है | ५६ | १ 'पूर्वोद्विविधं' पाठान्तरम् ।
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