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गाथा ५७ ] .. तृतीयोऽधिकारः
[ २२६ तथा परमात्मसंज्ञे कौतस्कुती तव भवेद्विफला प्रसूतिः । ३ । कंखिद कलुसिदभूतो कामभोगेहि मुच्छिदो जीवो। ण य भुजतो भोगे बंधदि भावेण कम्माणि । ४।' इत्याद्यपध्यानं त्यक्त्वा-"ममत्तिं परिवजामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो । आलंवणं च मे अादा अवसेसाई वोसरे । १ । श्रादा खु मज्झ णाणे प्रादा मे दंसणे चरित्ते य। आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवेरे जोगे । २ । एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलकखणो । सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा । ३।" इत्यादिसारपदानि गृहीत्वा च ध्यानं कर्तव्यमिति ।
अथ मोक्षविषये पुनरपि नयविचारः कथ्यते । तथाहि मोक्षस्तावत् बंधपूर्वकः । तथाचोक्त-"मुक्तश्चेत् प्राक्भवेद्वन्धो नो बंधो मोचनं कथम् । प्रबंधे मोचनं नैव मुञ्चरर्थो निरर्थकः ।१।" बंधश्च शुद्धनिश्चयनयेन नास्ति, तथा बंधपूर्वको मोक्षोऽपि । यदि पुनः शुद्धनिश्चयेन बंधो भवति तदा सर्वदैव बंध एव, मोक्षो नास्ति । किंच-यथा शृङ्खलाबद्धपुरुषस्य बंधच्छेदकारणभूतभावमोक्ष
व्यर्थ तरंगें उठती रहती हैं । उसी प्रकार यदि वह मन परमात्मरूप स्थान में स्फुरायमान हो तो तेरा जन्म कैसे निष्फल हो सकता है ? अर्थात् तेरा जन्म सफल हो जावे ।३।
आकांक्षा से कलुषित हुआ और काम भोगों में मूच्छित, यह जीव भोगों को नहीं भोगता हुआ भी भावों से कर्मों को बाँधता है । ४।" इत्यादि रूप दुर्ध्यान को छोड़कर “निर्ममत्त्व में स्थित होकर अन्य पदार्थों में ममत्व बुद्धि का त्याग करता हूँ, मेरे आत्मा का ही आलंबन है, अन्य सबको मैं त्यागता हूँ। १ । मेरा आत्मा ही दर्शन है, आत्मा ही ज्ञान है, आत्मा ही चारित्र है, आत्मा ही प्रत्याख्यान है, आत्मा ही संवर है और आत्मा ही योग है। २ । ज्ञान-दर्शन का धारक अविनाशी एक मेरा आत्मा है, और शेष सब संयोग लक्षण वाले बाह्य भाव हैं । ३ ।" इत्यादि सारभूत पदों को ग्रहण करके ध्यान करना चाहिए।
अब मोक्ष के विषय में फिर भी नय-विचार को कहते हैं-मोक्ष बंधपूर्वक है । सो ही कहा है-“यदि जीव मुक्त है तो पहले इस जीव के बंध अवश्य होना चाहिये। क्योंकि यदि बंध न हो तो मोक्ष (छूटना) कैसे हो सकता है । इसलिये अबंध (न बंधे हुए) की मुक्ति नहीं हुआ करती, उसके तो मुच धातु (छुटने की वाचक) का प्रयोग ही व्यर्थ है" ( कोई मनुष्य पहले बंधा हुआ हो, फिर छूट, तब वह मुक्त कहलाता है। ऐसे ही जो जीव पहले कर्मों से बंधा हो उसी को मोक्ष होती है)। शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा से बंध है ही नहीं। इस प्रकार शुद्ध-निश्चयनय से बंधपूर्वाक मोक्ष भी नहीं है। यदि शुद्ध-निश्चयनय की अपेक्षा बंध होवे तो सदा ही बंध होता रहे, मोक्ष ही न हो। जैसे जंजीर से बंधे हुए पुरुष के, बंधनाश के कारणभूत जो भावमोक्ष है उसकी जगह जो जंजीर के बंधन को छेदने का कारणभूत उद्यम है, वह पुरुष का स्वरूप नहीं है और इसी प्रकार द्रव्यमोक्ष के स्थान में जो जंजीर
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