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२१६ ] वृहद्र्व्य संग्रहः
[ गाथा ५४ भ्यन्तरमोक्षमार्गसाधकं परमसाधुभक्तिरूपं णमों लोए सव्वसाहूणं' इति पदोच्चारणजपध्यानलक्षणं यत् पदस्थध्यानं तस्य ध्येयभूतं साधुपरमेष्ठिस्वरूपं कथयति
दसणणाणसमग्गं मग्गं मोक्खस्स जो हु चारित्त। साधयदि णिच्चसुद्धं साहू स मुणी णमो तस्स ॥ ५४॥ दर्शनज्ञानसमग्र मार्ग मोक्षस्य यः हि चारित्रम् ।
साधयति नित्यशुद्धं साधुः सः मुनिः नमः तस्मै ॥ ५४॥
व्याख्या-'साहू स मुणी' स मुनिः साधुर्भवति । यः किं करोति ? 'जो हु साधयदि' या कर्ता हु स्फुट साधपतिं । किं ? 'चारित्त' चारित्रं । कथंभूतं ? 'दसणगाणसमरगं' वीतरागसम्यग्दर्शनशानाम्यां समग्रम् परिपूर्णम् । पुनरपि कथम्भूतं ? 'मग्गं मोकवस्स' मार्गभूतं; कस्य ? मोक्षस्य । पुनश्च किम् रूप शिर नित्यं चर्वकालं युद्ध रामादिरहितम् । 'णमा तस्स' एवं गुणविशिष्टो यस्तस्मै साधवे नमो नमस्कारोस्त्विति । तथाहि- "उद्योतनमुद्योगो निर्वहणं सोधनं च निस्तरणम् । दृगवगमचरणतपसामाख्याताराधना सद्भिः ।।"
मोक्षमार्ग के साधनेवाले परमसाधु की भक्तिस्वरूप "णमो लोए सव्वसाहू” पद के उच्चारणे, जपने और ध्यानेरूप जो पदस्थ ध्यान उसके ध्येयभूत, ऐसे साधु परमेष्ठी के स्वरूप को कहते हैं :
गाथार्थ :-दर्शन और ज्ञान से पूर्ण, मोक्षमार्ग-स्वरूप, सदाशुद्ध, ऐसे चारित्र को जो साधते हैं, वे मुनि 'साधु परमेष्ठी' हैं, उनको मेरा नमस्कार हो ॥ ५४ ॥
. वृत्यर्थ :-'साहू स मुणी' वह मुनि साधु होते हैं । वे क्या करते हैं ? 'जोह साधयदि' जो प्रकट रूप से साधते हैं। किसको साधते हैं ? 'चारित्तं चारित्र को साधते हैं। किस प्रकार के चारित्र को साधते हैं ? 'दंसणणाण समग्गं' वीतराग सम्यग्दर्शन व ज्ञान से परिपूर्ण चारित्र को साधते हैं। पुनः चारित्र कैसा है ? 'मग्गं मोक्खस्स' जो चारित्र मार्गस्वरूप है । किस का मार्ग है ? मोक्ष का मार्ग है । वह चारित्र किस रूप है ? 'णिच्च सुद्धं' जो चारित्र नित्य सर्वकालशुद्ध अर्थात् रागादि रहित है। (वीतराग सम्यग्दर्शन-ज्ञान से परिपूर्ण, मोक्षमार्ग-स्वरूप, नित्य रागादि रहित, ऐसे चारित्र को अच्छी तरह पालनेवाले मुनि, साधु हैं)। “णमो तस्स” पूर्वोक्त गुण सहित उस साधु परमेष्ठी को नमस्कार हो। स्पष्टीकरण-"दर्शन, ज्ञान, चारित्र और तप इनका जो उद्योतन, उद्योग, निर्वहण, साधन और निस्तरण है, उसको सत्पुरुषों ने आराधना कहा है । १ । इस आर्याछन्द में कही हुई
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