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६८] वृहद्रव्यसंग्रह
[गाथा ३५ ध्यात्पुरुषेण यदेव नित्यसकलनिरावरणमखण्डकसकल विमलकेवलज्ञानलक्षणं परमात्मस्वरूपं तदेवाहं, न च खण्डज्ञानरूप, इति भावनीयम् । इति संवरतत्त्वव्याख्यानविषये नयविभागो ज्ञातव्य इति ।। ३४॥
अथ संवरकारणभेदान् कथयतीत्येका पातनिका, द्वितीया तु कैः कृत्वा संवरो भवतीति पृष्टे प्रत्युत्तरं ददातीति पातनिकाद्वयं मनसि धृत्वा सूत्रमिदं प्रतिपादयति भगवान्
वदसमिदीगुत्तीओ धम्माणुपेहा परीसहजत्रो य । चारित्रं बहुभेया णायव्वा भावसंवरविसेसा ॥ ३५ ॥ व्रतसमितिगुप्तयः धर्मानुप्रेक्षाः परीषहजयः च ।
चारित्रं बहुभेदं ज्ञातव्याः भावसंवरविशेषाः ॥ ३५ ॥ व्याख्या- 'वदसमिदीगुत्तीरो' व्रतसमितिगुप्तयः, 'धम्माणुपेहा' धर्मस्तथैवानुप्रेक्षाः, 'परीसहजओ य' परीषहजयश्च, 'चारिच बहुभेया' चारित्रं बहुभेदयुक्त', 'णायव्वा भावसंवरविसेसा' एते सर्वे मिलिता भावसंवरविशेषा भेदा ज्ञातव्याः । अथ विस्तर :-निश्चयेन विशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावनिजात्मतत्त्वभावनोत्पन्न
मुक्ति का कारण है तथापि ध्यान करने वाले पुरुष को, 'नित्य सकल-आवरणों से रहित, अखण्ड, एक सकल विमल-केवल ज्ञानरूप परमात्मा का जो स्वरूप है, वही मैं हूँ, खण्ड ज्ञानरूप नहीं हूं' ऐसा ध्यान करना चाहिये । इस तरह संवर तत्त्व के व्याख्यान में नय का विभाग जानना चाहिये ॥ ३४ ॥
अब संवर के कारणों के भेद कहते हैं, यह एक भूमिका है। किनसे संवर होता है ? इस प्रश्न का उत्तर देनेवाली दूसरी भूमिका है, इन दोनों भूमिकाओं को मन में धारण करके, श्री नेमिचन्द्र आचार्य गाथासूत्र को कहते हैं :
गाथार्थ :-पांच व्रत. पांच समिति. तीन गुप्ति, दश धर्म, बारह अनुप्रेक्षा, बाईस परिषहजय तथा अनेक प्रकार का चारित्र इस तरह ये सब भावसंवर के भेद जानने चाहिएं।
वृत्त्यर्थ :- वदसमिदीगुत्तीरो' व्रत, समिति, गुप्तियां, "धम्माणपेहा” धर्म और अनुप्रेक्षा, 'परीसहजओ य और परीषहों का जीतना, 'चारित्तं बहुभेया' अनेक प्रकार का चारित्र, 'णायव्वा भावसंवरविसेसा' ये सब मिलकर भावसंवर के भेद जानने चाहिएँ । अब इसको विस्तार से कहते हैं-निश्चयनय की अपेक्षा विशुद्ध ज्ञान दर्शनरूप स्वभाव धारक निज-आत्मतत्त्व की भावना से उत्पन्न सुखरूपी अमृत के आस्वाद के बल से सब शुभ
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