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१३८] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ३५ सकाशात्पंचाशत्सहसूप्रमितयोजनानि जलमध्ये प्रविश्य यत्पूर्व चतुश्चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणं प्रथमवलयं व्याख्यातं तस्माद् द्विगुणसंख्यानं प्रथमवलयं भवति । तदनन्तरं पूर्ववद्योजनलऽ गते वलयं भवति चन्द्रचतुष्टयस्य सूर्यचतुष्टयस्य च वृद्धिरित्यनेनैव क्रमेण स्वयम्भूरमणसमुद्रबहिर्भागवेदिकापर्यन्तं ज्योतिष्कदेवानामवस्थानं बोधव्यम् । एते च प्रतरासंख्येयभागप्रमिता असंख्ये या ज्योतिष्कविमाना अकृत्रिमसुवर्णमयरत्नमयजिनचैत्यालयमण्डिता ज्ञातव्याः। इति संक्षेपेण ज्योतिकलोकव्याख्यानं समाप्तम् । __ अथानन्तरमूवलोकः कथ्यते । तथाहि-सौधर्मेंशानसानत्कुमारमाहेन्द्रब्रह्मब्रह्मोत्तरलान्तवकापिष्टशुक्रमहाशुकशतारसहसारानतप्राणतारणाच्युतसंज्ञाः षोडश स्वर्गाः ततोऽपि नव वेयकसंज्ञास्ततश्च नवानुदिशसंज्ञं नवविमानसंख्य मेकपटलं ततोऽपि पंचानुत्तरसंज्ञं पंचविमानसंख्यमेकपटलं चेत्युक्तक्रमेणोपर्यपरि वैमानिकदेवास्तिष्ठन्तिीति वार्तिकं सङ्ग्रहवाक्यं समुदायकथनमिति यावत् । आदिमध्यान्तेषु द्वादशाष्टचतुर्योजनवृत्तविष्कम्भा चत्वारिंशत्प्रमितयोजनोत्सेधा या मेरुचूलिका तिष्ठति तस्या उपरि कुरुभूमिजमर्त्यवालागान्तरितं पुनऋजुविमानमस्ति । तदादिं कृत्वा
एक सौ चवालीस चन्द्र तथा सूर्य का जो पहले कथन किया है, उससे दुगुने (दो सौ अट्ठासी) चन्द्रमा व सूर्यों वाला पहला वलय है । उसके पश्चात् पूर्वोक्त प्रकार एक-एक लाख योजन जाने पर एक-एक वलय है । प्रत्येक वलय में चार चन्द्रमा और चार सूर्यों की वृद्धि होती है । इसी क्रम से स्वयंभूरमण समुद्र की अन्त की वेदिका तक ज्योतिष्क देवों का अवस्थान जानना चाहिए । जगप्रतर के असंख्यातवें भाग प्रमाण असंख्यात ये ज्योतिष्कविमान अकृत्रिम सुवर्ण तथा रत्नमय जिनचैत्यालयों से भूषित हैं, ऐसा समझना चाहिए। इस प्रकार संक्षेप से ज्योतिष्क लोक का वर्णन समाप्त हुआ।
अब इसके अनंतर ऊर्ध्व लोक का कथन करते हैं। सौधर्म, ईशान, सानत्कुमार, माहेन्द्र, ब्रह्म, ब्रह्मोत्तर, लांतव, कापिष्ट, शुक्र, महाशुक्र, शतार, सहस्रार, आनत, प्राणत,
आरण और अच्युत नामक सोलह स्वर्ग हैं । वहाँ से आगे नव प्रैवेयक विमान हैं । उनके ऊपर नवानुदिश नामक : विमानों का एक पटल है, इसके भी ऊपर पांच विमानों की संख्या वाला पंचानुत्तर नामक एक पटल है, इस प्रकार उक्त क्रम से वैमानिक देव तिष्ठित हैं। यह वार्तिक अर्थात् संग्रह वाक्य अथवा समुदाय से कथन है । आदि में बारह, मध्य में आठ और अन्त में चार योजन प्रमाण गोल व्यासवाली चालीस योजन ऊँची मेरु की चूलिका है; उसके ऊपर देवकुरु अथवा उत्तरकुरु नामक उत्तम भोगभूमि में उत्पन्न हुए मनुष्य के बाल के अग्रभाग प्रमाण के अन्तर से ऋजु विमान है । चूलिका सहित एक लाख
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