Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 164
________________ [ १४३ गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः परमात्मनि अबलोकनं वा स निश्चयलोकः । “सण्णाश्रो यतिलेस्सा इंदियवसदा अट्टरुद्दाणि । णाणं च दुप्पउन मोहो पावप्पदो होदि।१।" इति गाथोदितविभावपरिणाममादिं कृत्वा समस्तशुभाशुभसंकल्पविकल्पत्यागेन निजशुद्धात्मभावनोत्पन्नपरमाह्लादै कसुखामृतरसास्वादानुभवनेन च या भावना सैव निश्चयलोकानुप्रेक्षा। शेषा पुनर्व्यवहारेणेत्येवं संक्षेपेण लोकानुप्रेक्षाव्याख्यानं समाप्तम् ॥ १० ॥ ___ अथ वोधिदुर्लभानुप्रेक्षां कथयति। तथाहि एकेन्द्रियविकलेन्द्रियपंचेन्द्रियसंज्ञिपर्याप्तमनुष्यदेशकुलरूपेन्द्रियपटुत्वनिर्व्याध्यायुष्कवरबुद्धिसद्धर्मश्रवणग्रहणधारणश्र - द्धानसंयमविषयसुखव्यावर्तनक्रोधादिकषायनिवर्त्तनेषु परं परं दुर्लभेषु कथंचित् काकतालीयन्यायेन लब्धेष्वपि तल्लब्धिरूपबोधेः फलभूतस्वशुद्धात्मसंवित्त्यिात्मकनिर्मलधर्मध्यानशुक्लध्यानरूपः परमसमाधिदुर्लभः । कस्मादिति चेत्तत्प्रतिबन्धकमिथ्यात्वविषयकषायनिदानबन्धादिविभावपरिणामानां प्रबलत्वादिति । तस्मात्स एव निरन्तरं भावनीयः । तद्भावनारहितानां पुनरपि संसारे पतनमिति । तथा चोक्तम्- "इत्यतिदुर्लभरूपां बोधिं लब्ध्वा यदि प्रमादी स्यात् । संसृतिभीमारण्ये भ्रमति वराको नरः सुचिरम् । १ ।" पुनश्चोक्तं मनुष्यभवदुर्लभत्वम् - "अशुभ होना अार्त-रौद्र-ध्यान तथा दुष्प्रयुक्त ज्ञान और मोह ये सब पाप को देने वाले हैं।' इस गाथा में कहे हुए विभाव परिणाम आदि सम्पूर्ण शुभ-अशुभ संकल्प विकल्पों के त्याग से और निज शुद्ध आत्मा की भावना से उत्पन्न परम आह्लाद सुख रूपी अमृत के आस्वाद के अनुभव से जो भावना होती है, वही निश्चय से लोकानुप्रेक्षा है, शेष व्यवहार से है। इस प्रकार संक्षेप से लोकानुप्रेक्षा का वर्णन समाप्त हुआ। १० । बोधिदुर्लभ अनुप्रेक्षा-एकेन्द्रिय, विकलेन्द्रिय, पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्त, मनुष्य, उत्तम देश, उत्तम कुल, सुन्दर रूप, इन्द्रियों की पूर्णता, कार्य कुशलता, नीरोग, दीर्घ आयु, श्रेष्ठ बुद्धि, समीचीन धर्म का सुनना-ग्रहण करना-धारण करना श्रद्धान करना, संयम, विषय सुखों से प्राणमुखता, क्रोध आदि कषायों से निवृत्ति, ये उत्तरोत्तर दुर्लभ हैं । कदाचित् काकतालीय न्याय से इन सबके प्राप्त हो जाने पर भी, इनकी प्राप्ति रूप बोधि के फलभूत जो निज शुद्ध आत्मा के ज्ञानस्वरूप निर्मल धर्मध्यान तथा शुक्ल ध्यान रूप परम समाधि है, वह दुर्लभ है । परम समाधि दुर्लभ क्यों है ? समाधान-परम समाधि को रोकने वाले मिथ्यात्व, विषय, कषाय, निदानबंध आदि जो विभाव परिणाम हैं, उनकी जीवों में प्रबलता है, इसलिये परमसमाधि का होना दुर्लभ है। इस कारण उस परमसमाधि की ही निरन्तर भावना करनी चाहिये। क्योंकि, उस भावना से रहित जोवों का फिर मी संसार में पतन होता है । सो ही कहा है-"जो मनुष्य अत्यन्त दुर्लभरूप बोधि को प्राप्त होकर, प्रमादी Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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