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बृहद् द्रव्य संग्रहः
[ गाथा ४०
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व्याख्या : - 'रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पाणं मुइत्तु अगद वियह्नि' रत्नत्रयं न व स्वकीयशुद्धात्मानं मुक्त्वा अन्याचेतने द्रव्ये । 'तह्मा तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं यदा' तस्मात्तत्रितयमय आत्मैव निश्चयेन मोक्षस्य कारणं भवतीति जानीहि । अथ विस्तरः - रागादिविकल्पोपाधिरहितचिच्चमत्कार भावनोत्पन्नमधुररसास्वादसुखोऽहमिति निश्चयरुचिरूपं सम्यग्दर्शनं तस्यैव सुखस्य समस्तविभावेभ्यः स्वसंवेदनज्ञानेन पृथक् परिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं तथैव दृष्टश्रुतानुभूतभोगाकाङ्क्षाप्रभृतिसमस्तापध्यानरूपमनोरथजनितसंकल्प-विकल्पजालत्यागेन तत्रैव सुखे रतस्य सन्तुष्टस्य तृप्तस्यै काकारपरमसमरसीभावेन द्रवीभूतचित्तस्य पुन: पुनः स्थिरीकरणं सम्यक् चारित्रम् । इत्युक्तलक्षणं निश्चयरत्नत्रयं शुद्धात्मानं विहायान्यत्र घटपटादिबहिद्रव्ये न वर्त्तते यतस्ततः कारणादभेदनयेनानेकद्रव्यात्मकैकपानकवत्तदेव सम्यग्दर्शनं तदेव सम्यग्ज्ञानं तदेव सम्यक् चारित्रं तदेव स्वात्मतस्वमित्युक्तलक्षणं निजशुद्धात्मानमेव मुक्तिकारणं जानीहि ॥ ४० ॥
एवं प्रथमस्थले सूत्रद्वयेन निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गस्वरूपं संक्षेपेण व्या
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गाथार्थ :- आत्मा को छोड़कर अन्य द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता, इस कारण उन रत्नत्रयमयी आत्मा ही निश्चय से मोक्ष का कारण है ॥ ४० ॥
वृत्त्यर्थ :–‘रयणत्तयं ण वट्टइ अप्पा मुइत्तु अणदद्विह्नि' निज शुद्ध आत्मा को छोड़कर अन्य अचेतन द्रव्य में रत्नत्रय नहीं रहता है । 'तला तत्तियमइउ होदि हु मुक्खस्स कारणं दा' इस कारण इस रत्नत्रयमय आत्मा को ही निश्चय से मोक्ष का कारण जानो । इसका विस्तृत वर्णन - 'राग आदि विकल्प रहित, चित्चमत्कार भावना से उत्पन्न, मधुर रस के आस्वाद रूप सुख का धारक मैं हूँ' इस प्रकार निश्चय रुचि सम्यग्दर्शन है और स्वसंवेदन ज्ञान द्वारा उसी सुख का राग आदि समस्त विभावों से भिन्न जानना सम्यग्ज्ञान है । इसी प्रकार देखे, सुने तथा अनुभव किये हुए जो भोग आकांक्षा आदि समस्त दुर्थ्यानरूप मनोरथ से उत्पन्न हुए संकल्प-विकल्प जाल के त्याग द्वारा, उसी सुख में रत - सन्तुष्ट - तृप्त तथा एकाकार रूप परम समता भाव से द्रवीभूत ( भीगे ) चित्त का पुनः पुनः स्थिर करना सम्यक् चारित्र है । इस प्रकार कहे हुए लक्षण वाले जो रत्नत्रय हैं वे शुद्ध आत्मा के सिवाय अन्य घट, पट आदि बाह्य द्रव्यों में नहीं रहते, इस कारण अभेद से अनेक द्रव्यमयी एक पेय (बादाम, सौंफ, मिश्री, मिरच आदि रूप ठंडाई) के समान, वह आत्मा ही सम्यग्दर्शन है, वह आत्मा ही सम्यग्ज्ञान है, वह आत्मा ही सम्यक् चारित्र है तथा वही निज आत्मतत्त्व है । इस प्रकार कहे हुए लक्षण वाले निज शुद्ध आत्मा को ही मुक्ति का कारण जानो । ४० ।
इस प्रकार प्रथम स्थल में दो गाथाओं द्वारा संक्षेप से निश्चय मोक्ष-मार्ग और
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