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तृतीयोऽधिकारः
अथ निर्विकल्पसत्ताग्राहकं दर्शनं कथयति :
गाथा ४३ ]
जं सामण्णं गहणं भावाणं व कट्टु मायारं । विसेसि अट्ठ े दंसणमिदि भरणए समए || ४३ ॥
यत् सामान्यं ग्रहणं भावानां नैव कृत्वा आकारम् । विशेषयित्वा अर्थान् दर्शनं इति भण्यते समये ॥ ४३ ॥
व्याख्या- 'जं सामण्णं गहणं भावाणं' यत् सामान्येन सत्तावलोकनेन ग्रहणं परिच्छेदनं, केषां ? भावानां पदार्थानां किं कृत्वा ? “ व कट्टुमायारं" नैव कृत्वा, कं ? आकारं विकल्पं, तदपि किं कृत्वा ? " अविसेसिदूण अट्ठ" श्रविशेष्याविभेद्यार्थान् केन रूपेण १ शुक्लोऽयं, कृष्णोऽयं दीर्घोऽयं, ह्रस्वोऽयं, घटोऽयं, पटोऽयमित्यादि । "दंसणमिदि भरणए समए" तत्सत्तावलोकं दर्शनमिति भरायते समये परमागमे । नेदमेव तत्रार्थ श्रद्धानलक्षणं सम्यग्दर्शनं वक्तव्यम् । कस्मादितिचेत् ? तत्र श्रद्धानं विकल्परूपमिदं तु निर्विकल्पं यतः । अयमत्र भावः - यदा कोऽपि किमप्यवलोकयति पश्यति, तदा यावत् विकल्पं न करोति तावत् सत्तामात्रग्रहणं दर्शनं भण्यते, पश्चाच्छुक्लादिविकल्पे जाते ज्ञानमिति ॥ ४३ ॥
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विकल्परहित सत्ता को ग्रहण करने वाले दर्शन को कहते हैं।
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गाथार्थ :-- • पदार्थों में विशेषता (भेद) न करके और विकल्प न करके पदार्थों का सामान्य से जो (सत्तावलोकन रूप ) ग्रहण करना है, वह परमागम में दर्शन कहा गया है |४३|
वृत्त्यर्थ :- - "जं सामरणं गहणं भावागं" जो सामान्य से अर्थात् सत्तावलोकन से ग्रहण करना; किसका ग्रहण करना ? पदार्थों का ग्रहण करना । क्या करके ? "णेव कट् टुमायारं" नहीं करके, किस को नहीं करके ? आकार अथवा विकल्प को नहीं करके । वह भी क्या करके ? " अविसेसिदूण अट्ठ" पदार्थों को विशेषित या भेद न करके । किस रूप से ? यह शुक्ल है, यह कृष्ण है, यह बड़ा है, यह छोटा, यह घट है और यह पट है, इत्य. दि रूप से भेद न करके । " दंसणमिदि भरणए समए" वह परमागम में सत्तावलोकनरूप दर्शन कहा जाता है । इसी दर्शन को तत्त्वार्थ श्रद्धान लक्षण वाला सम्यग्दर्शन नहीं कहना चाहिये | क्यों नहीं कहना चाहिये ? क्योंकि वह श्रद्धान ( सम्यग्दर्शन ) तो विकल्परूप है और यह दर्शन - उपयोग विकल्परहित है । तात्पर्य यह है - जब कोई भी किसी पदार्थ को देखता है, वह देखने वाला जब तक विकल्प न करे तब तक तो सत्तामात्र ग्रहण को दर्शन कहते हैं । पश्चात् शुक्ल आदि का विकल्प होजाने पर ज्ञान' कहा जाता है ॥ ४३ ॥
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