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२१०] बृहद्र्व्यसंग्रहः
[गाथा ५० भवति । तथैव च यथा सर्वज्ञसद्भावे स्वपक्षे वर्तते तथा सर्वज्ञाभावेऽपि विपक्षेऽपि न वर्तते तेन कारणेनाऽनैकान्तिको न भवति । अनैकान्तिकः कोऽर्थो ? व्यभिचारीति । तथैव प्रत्यक्षादिप्रमाणबाधितो न भवति, तथैव च प्रतिवादिनां प्रत्यसिद्ध सर्वज्ञसद्भावं साधयति, तेन कारणेनाकिंचित्करोऽपि न भवति । एवमसिद्धविरुद्धानकान्तिकाकिश्चित्करहेतुदोषरहितत्वात्सर्वज्ञसद्भावं साधयत्येव । इत्युक्तप्रकारेण सर्वज्ञसद्भावे पक्षहेतुदृष्टान्तोपनयनिगमनरूपेण पञ्चाङ्गमनुमानम् ज्ञातव्यमिति ।
किं च यथा लोचनहीनपुरुषस्यादर्श विद्यमानेऽपि प्रतिविम्बानां परिज्ञानं न भवति, तथा लोचनस्थानीयसर्वज्ञतागुणरहितपूरुषस्यादर्शस्थानीयवेदशास्त्रे कथितानां प्रति विम्बस्थानीयपरमाणवाद्यनन्तसूक्ष्मपदार्थानां क्वापिकाले परिज्ञानं न भवति । तथाचोक्तं “यस्य नास्ति स्वयं प्रज्ञा शास्त्रं तस्य करोति किम् । लोचनाभ्यां विहीनस्य दर्पणः किं करिष्यति ॥ १॥ इति संक्षेपेण सर्वज्ञसिद्धिरत्र बोद्धव्या । एवं पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्याने ध्येयभूतस्य सकलात्मनो जिनभट्टारकस्य व्याख्यानरूपेण गाथा गता ॥५०॥
है, जैसे सर्वाज्ञ के अभाव रूप विपक्ष में नहीं रहता, इस कारण उक्त हेतु अनैकान्तिक भी नहीं है । अनैकान्तिक का क्या अर्थ है ? 'व्यभिचारी' । प्रत्यक्ष आदि प्रमाणों से बाधित भी नहीं है, तथा सर्वाज्ञ को न मानने वाले भट्ट और चार्वाक के लिये सर्वज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता है अतः इन दोनों कारणों से अकिंचित् कर भी नहीं है। इस प्रकार से 'अनुमान का विषय होने से' यह हेतु-वचन असिद्ध, विरुद्ध, अनैकान्तिक, अकिंचित्कर रूप हेतु के दूषणों से रहित है, इस कारण सर्वाज्ञ के सद्भाव को सिद्ध करता ही है। इस प्रकार सर्वज्ञ के सद्भाव में पक्ष, हेतु, दृष्टान्त, उपनय और निगमन रूप से पांचों अंगों वाला अनुमान जानना चाहिये।
विशेष :--जैसे नेत्रहीन पुरुष को दर्पण के विद्यमान रहने पर मी प्रतिबिंबों का ज्ञान नहीं होता, इसी प्रकार नेत्रों के स्थानभूत सर्वाज्ञतारूप गुण से रहित पुरुष को दर्पण के स्थानभूत वेदशास्त्र में कहे हुए प्रतिविम्बों के स्थानभूत परमाणु आदि अनन्त सूक्ष्म पदार्थों का किसी भी समय ज्ञान नहीं होता । ऐसा कहा भी है कि-'जिस पुरुष के स्वयं बुद्धि नहीं है उसका शास्त्र क्या उपकार कर सकता है ? क्योंकि नेत्रों से रहित पुरुष का दर्पण क्या उपकार करेगा ? (अर्थात् कुछ उपकार नहीं कर सकता)। १।' इस प्रकार यहाँ संक्षेप से सर्वज्ञ की सिद्धि जाननी चाहिए । ऐसे पदस्थ, पिंडस्थ और रूपस्थ इन तीनों ध्यानों में ध्येयभूत सकल-परमारम-श्रीजिन-भट्टारक के व्याख्यान से यह गाथा समाप्त हुई ॥ ५० ॥
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