Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 234
________________ गाथा ५२] तृतीयोऽधिकारः [ २१३ दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे । अप्पं परं च जुंजइ सो आयरिओ मुणी झेप्रो ॥ ५२ ।। दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतप आचारे । आत्मानं परं च युनक्ति सः प्राचार्यः मुनिः ध्येयः ॥५२॥ व्याख्या- 'दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे' सम्यग्दर्शनज्ञानप्रधाने वीर्यचारित्रवरतपश्चरणाचारेऽधिकरणभते 'अप्पं परं च जुजई' आत्मानं परं शिष्यजनं च योऽसौ योजयति सम्बन्धं करोति 'सो आयरिश्रो मुणी झो' स उक्तलक्षण आचार्यो मुनिस्तपोधनो ध्येयो भवति । तथाहि-भूतार्थनयविषयभूतः शुद्धसमयसारशब्दवाच्यो भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मादिसमस्तपरद्रव्येभ्यो भिन्नः परमचेचन्यविलासलक्षणः स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति रुचिरूपं सम्यग्दर्शनं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयदर्शनाचारः। १ । तस्यैव शुद्धात्मनो निरुपाधिस्वसंवेदनलक्षणभेदज्ञानेन मिथ्यात्वरागादिपरभावेभ्यः पृथपरिच्छेदनं सम्यग्ज्ञानं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयज्ञानाचारः । २। तत्रैव रागादिविकल्पोपाधिरहितस्वाभाविकसुखास्वादेन निश्चलचित्त वीतरागचारित्रं, तत्राचरणं परिणमनं निश्चयचारित्रा गाथार्थ :-दर्शनाचार १, ज्ञानाचार २, की मुख्यता सहित वीर्याचार २, चारित्राचार ३ और तपाचार ५, इन पाँचों आचारों में जो आप भी तत्पर होते हैं और अन्य (शिष्यों ) को भी लगाते हैं, वह आचार्यमुनि ध्यान करने योग्य हैं ॥ ५२ ॥ वृत्त्यर्थ :-"दसणणाणपहाणे वीरियचारित्तवरतवायारे” सम्यग्दर्शनाचार और सम्यग्ज्ञानाचार की प्रधानता सहित, वीर्याचार, चारित्राचार और तपश्चरणाचार में "अप्पं परं च जुजइ” अपने को और अन्य अर्थात् शिष्य-जनों को लगाते हैं, “सो आयरिओ मुणी झेओ" वे पूर्वोक्त लक्षणवाले आचार्य तपोधन ध्यान करने योग्य हैं । विशेषभूतार्थनय (निश्चयनय) का विषयभूत, 'शुद्धसमयसार' शब्द से वाच्य, भावकर्म-द्रव्यकर्मनोकर्म आदि समस्त पर-पदार्थों से भिन्न और परम-चैतन्य का विलासरूप लक्षण वाली, यह निज-शुद्ध-आत्मा ही उपादेय है; ऐसी रुचि सम्यक्-दर्शन है; उस सम्यग्दर्शन में जो आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयदर्शनाचार है । १ । उसी शुद्ध आत्मा को, उपाधि रहित स्वसंवेदनरूप भेदज्ञान द्वारा मिथ्यात्व-राग आदि परभावों से भिन्न जानना, सम्यग्ज्ञान है; उस सम्यग्ज्ञान में आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयज्ञानाचार है । २। उसी शुद्ध आत्मा में राग आदि विकल्परूप उपाधि से रहित स्वाभाविक सुखास्वाद से निश्चल-चित्त होना, वीतरागचारित्र है; उसमें जो आचरण अर्थात् परिणमन, वह निश्चयचारित्राचार - Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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