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गाथा ४४] तृतीयोऽधिकारः
[ १८७ ज्ञानाभावदूषणं न प्रामोति । कस्मादिति चेत् ? यथैकोऽप्यग्निर्दहतीति दाहकः, पचतीति पाचकः, विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । तथैवाभेदनयेनैकमपि चैतन्य भेदनयविवक्षायां यदात्मगाहकत्वेन प्रवृत्तं तदा तस्य दर्शनमिति संज्ञा, पश्चात् यच्च परद्रव्यग्राहकत्वेन प्रवृत्त तस्य ज्ञानसंज्ञेति विषयभेदेन द्विधा भिद्यते । किं च, यदि सामान्यग्राहकं दर्शनं विशेषगाहकं ज्ञानं भण्यते, तदा ज्ञानस्य प्रमाणत्वं न प्राप्नोति । कस्मादिति चेत्-वस्तुगाहकं प्रमाणं; वस्तु च सामान्यविशेषात्मक ज्ञानेन पुनर्वस्त्वेकदेशो विशेष एव गृहीतो; न च वस्तु । सिद्धान्तेन पुनर्निश्चयेन गुणगुणिनोरभिन्नत्वात् संशयविमोहविभ्रमरहितवस्तुज्ञानस्वरूपात्मैव प्रमाणम् । स च प्रदीपयत् स्वपरगतं सामान्यं विशेषं च जोनाति । तेन काणेनाभेदेन तस्यैव प्रमाणत्वमिति ।
अथ मतं-यदि दर्शनं बहिर्विषये न प्रवर्तते तदान्धवत् सर्वजनानामन्धत्वं प्राप्नोतीति ? नैवं वक्तव्यम् । बहिर्विषये दर्शनाभावेऽपि ज्ञानेन विशेषेण सर्व
सिद्धान्त में, आत्मा ज्ञान गुण से पर पदार्थ को जानता है तथा दर्शन गुण से आत्मा स्व को जानता है, इस कारण जैनमत में 'आत्मा को न जानने का' दूषण नहीं आता। यह दूषण क्यों नहीं आता ? उत्तर-जैसे एक ही अग्नि जलाती है, अतः वह दाहक है और पकाती है इस कारण पाचक है; विषय के भेद से दाहक, पाचक रूप अग्नि दो प्रकार की है। उसी प्रकार असेदनय से चैतन्य एक ही है; भेदनय की विवक्षा में जब आत्मा को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उसका नाम 'दर्शन' है, और फिर जब पर पदार्थ को ग्रहण करने में प्रवृत्त होता है, तब उस चैतन्य का नाम 'ज्ञान' है, इस प्रकार विषयभेद से चैतन्य दो प्रकार का होता है। विशेष बात यह है-यदि सामान्य के ग्रहण करने वाले को दर्शन और विशेष के ग्रहण करने वाले को ज्ञान कहा जावे तो ज्ञान को प्रमाणता नहीं
आती। शङ्का-ज्ञान को प्रमाणता क्यों नहीं आती ? समाधान-वस्तु को ग्रहण करने वाला प्रमाण है । वस्तु सामान्य-विशेष स्वरूप है । ज्ञान ने वस्तु का एक देश जो विशेष, उस विशेष को ही ग्रहण किया, न कि सम्पूर्ण वस्तु को ग्रहण किया । सिद्धान्त से निश्चयनय की अपेक्षा गुण-गुणी अभिन्न हैं; अतः संशय-विमोह-विभ्रम से रहित जो वस्तु का ज्ञान है उस ज्ञान-स्वरूप आत्मा ही प्रमाण है । जैसे प्रदीप स्व-पर प्रकाशक है, उसी प्रकार
आत्मा भी स्व और पर के सामान्य-विशेष को जानता है, इस कारण अभेद से आत्मा के ही प्रमाणता है।
आशङ्का-यदि दर्शन बाह्य विषय को ग्रहण नहीं करता तो अंधे की तरह सब मनुष्यों के अंधेपने का प्रसङ्ग प्राप्त हो जायेगा ? समाधान-ऐसा न कहना चाहिये, क्योंकि
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