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वृहद् द्रव्यसंग्रह
[ गाथा ५०
दिवाकरसहस्रभासुरपरमौदारिकशरीरत्वात् शुभदेहस्थः । “सुद्धो” “क्षुधा तृषा भयं द्वेषो रागो मोहश्च चिन्तनम् । जरा रुजा च मृत्युश्च खेदः स्वेदो मदोऽरतिः ॥ १ ॥ विस्मयो जननं निद्रा विषादोऽष्टादश स्मृताः । एतैर्दोषैर्विनिर्मुक्तः सो अयमाप्तो निरञ्जनः ॥ २ ॥” इति श्लोकद्वयकथिताष्टादशदोषरहितत्वात् शुद्धः । "अप्पा" एवं गुणविशिष्ट श्रात्मा । “अरिहो" अरिशब्दवाच्यमोहनीयस्य, रज:शब्दवाच्यज्ञानदर्शनावरणद्वयस्य, रहस्यशब्दवाच्यान्तरायस्य च हननाद्विनाशात् सकाशात् इन्द्रादिविनिर्मितां गर्भावतरणजन्माभिषेकनिःक्र मरण केवलज्ञानोत्पत्तिनिर्वाणाभिधानपञ्चमहाकल्याणरूपां पूजामर्हति योग्यो भवति तेन कारणेन श्रन् भण्यते । 'विचिन्तिज्जो' इत्युक्तविशेषणैर्विशिष्टमाप्तागमप्रभृतिग्रन्थ कथित वीतरागसर्वज्ञाद्यष्टोत्तरसहस्रनामानमर्हतं जिन भट्टारकं पदस्थापिंड स्थरूपस्थभ्याने स्थित्वा विशेषेण चिन्तयत ध्यायत हे भव्या यूयमिति ।
श्रावसरे भट्टचार्वाकमतं गृहीत्वा शिष्यः पूर्वपक्षं करोति । नास्ति सर्वज्ञोऽनुपलब्धेः । खरविषायावत् १ तत्र प्रत्युत्तरम् — किमत्र देशेऽत्र काले अनु
'सुहदेहत्थो' निश्चयनय से शरीर रहित हैं तो भी व्यवहारनय की अपेक्षा, सात धातुओं (कुधातु) से रहित व हजारों सूर्यों के समान दैदीप्यमान ऐसे परम श्रदारिक शरीर वाले हैं, इस कारण शुभदेह में विराजमान हैं । "सुद्धो" - 'क्षुधा १, तृषा २, भय ३, द्वेष ४, राग ५, मोह ६, चिंता ७, जरा ८, रुजा (रोग) ६, मरण १०, स्वेद ( पसीना ) ११, खेद १२, मद १३, अरति १४, विस्मय १५, जन्म १६, निद्रा १७ और विषाद १८; इन १८ दोषों से रहित निरंजन प्राप्त श्री जिनेन्द्र हैं । २।' इस प्रकार इन दो श्लोकों में कहे हुए अठारह दोषों से रहित होने के कारण 'शुद्ध' हैं । 'अप्पा' पूर्वोक्त गुणों की धारक आत्मा है । 'अरिहो'– 'अर' शब्द से कहे जाने वाले मोहनीय कर्म का, 'रज' शब्द से वाच्य ज्ञानावरण और दर्शनावरण इन दोनों कर्मों का तथा 'रहस्य' शब्द का वाच्य अन्तरायकर्म, इन चारों कम का नाश करने से इन्द्र आदि द्वारा रची हुई गर्भावतार - जन्माभिषेक - तपकल्याण- केवलज्ञानोत्पत्ति और निर्वाण समय में होने वाली पांच महाकल्याण रूप पूजा के योग्य होते हैं, इस कारण 'अन्' कहलाते हैं । 'विचितिज्जो' हे भव्यो ! तुम पदस्थ, पिंडस्थ व रूपस्थ ध्यान में स्थित होकर, आप्त- उपदिष्ट आगम आदि ग्रन्थ में कहे हुए तथा इन उक्त विशेषणों सहित वीतराग - सर्वज्ञ आदि एक हजार आठ नाम वाले अर्हत जिन भट्टारक का विशेष रूप से चिन्तवन करो |
इस अवसर पर भट्ट और चार्वाक मत का आश्रय लेकर शिष्य पूर्ण पक्ष करता हैसर्वज्ञ नहीं है; क्योंकि, उसकी प्रत्यक्ष उपलब्धि नहीं होती, जैसे गधे के सींग ? उत्तर
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