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गाथा ५० ] तृतीयोऽधिकारः
[ २०५ स्वरूपं कथयामीत्येका पातनिका । द्वितीया तु पूर्वसूत्रोदितसर्वपदनामपदादिपदानां वाचकभूतानां वाच्या ये पश्चपरमेष्ठिनस्तद्व्याख्याने क्रियमाणे प्रथमतस्तावजिनस्वरूपं निरूपयामि । अथवा तृतीया पातनिका पदस्थपिण्डस्थरूपस्थध्यानत्रयस्य ध्येयभूतमर्हत्सर्वज्ञस्वरूपं दर्शयामीति पातनिकात्रयं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदं प्रतिपादयति :
णट्ठचदुधाइकम्मो दसणसुहणाणवीरियमईयो। सुहदेहत्थो अप्पा सुद्धो अरिहो विचिंतिजो ॥ ५० ॥ नष्टचतुर्घातिका दर्शनसुखज्ञानवीर्यमयः।
शुभदेहस्थः आत्मा शुद्धः अर्हन् विचिन्तनीयः ॥५०॥
व्याख्या- "गट्ठचदुघाइकम्मो” निश्चयरत्नत्रयात्मकशुद्धोपयोगध्यानेन पूर्व घातिकर्ममुख्यभूतमोहनीयस्य विनाशनात्तदनन्तरं ज्ञानदर्शनावरणान्तरायसंज्ञ-युगपद्घातित्रयविनाशकत्वाच्च प्रणष्टचतुर्षातिकर्मा । "दंसणसुहणाणवीरियमईओ" तेनैव घातिकर्माभावेन लब्धानन्तचतुष्टयत्वात् सहजशुद्धाविनश्वरदर्शनज्ञानसुखवीर्यमयः । "सुहदेहत्थो" निश्चयेनाशरीरोऽपि व्यवहारेण सप्तधातुरहित
एक पातनिका है । पूर्व गाथा में कहे हुए सर्वपद-नामपद-आदिपदरूप वाचकों के वाच्य जो पंच-परमेष्ठी, उनका व्याख्यान करने में प्रथम ही श्री जिनेन्द्र के स्वरूप को निरूपण करता हूँ, यह दूसरी पातनिका है । अथवा पदस्थ, पिंडस्थ तथा रूपस्थ इन तीन ध्यानों के ध्येयभूत श्री अहंत सर्वज्ञ के स्वरूप को दिखलाता हूं, यह तीसरी पातनिका है। इस प्रकार इन पूर्वोक्त तीनों पातनिकाओं को मन में धारण करके सिद्धान्तदेव श्री नेमिचन्द्र आचार्य इस अग्रिम गाथासूत्र का प्रतिपादन करते है:
गाथार्थ :-चार घातिया कर्मों को नष्ट करने वाले, अनन्त-दर्शन-सुख-शान और वीर्य के धारक, उत्तम देह में विराजमान और शुद्ध-आत्मस्वरूप अरिहंत का ध्यान करना चाहिये ।। ५० ।।
वृत्त्यर्थ :-"णढचदुघाइकम्मो” निश्चयरत्नत्रय स्वरूप शुद्धोपयोगमयी ध्यान के द्वारा पहले घातिया कर्मों में प्रधान मोहनीयकर्म का नाश करके, पश्चात् ज्ञानावरणदर्शनावरण तथा अन्तराय इन तीनों ही घातिया कर्मों का एक ही साथ नाश करने से, जो चारों घातिया कमों का नष्ट करने वाले हो गये हैं। "दसणसुहणाणवीरियमईओ” उन घातिया कर्मों के नाश से उत्पन्न अनन्त चतुष्टय (अनन्त ज्ञान, अनन्त दर्शन, अनन्त सुख, अनन्त वीर्य) के धारक होने से स्वभाविक-शुद्ध-अविनाशी-ज्ञान-दर्शन-सुख-वीर्यमयी हैं।
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