Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 218
________________ गाथा ४८] तृतीयोऽधिकारः [ १६७ शत्रुव्याधिप्रभृतयः पुनरनिष्टेन्द्रियार्थास्तेषु । यदि किम् ? "थिरमिच्छहि जइ चित्त" तत्रैव परमात्मानुभवे स्थिरं निश्चलं चित्त यदीच्छत यूयं । किमर्थम् ? "विचित्तझाणप्पसिद्धीए" विचित्रं नानाप्रकारं यद्ध्यानं तत्प्रसिद्धयै निमित्त । अथवा विगतं चित्रं चित्तोद्भवशुभाशुभविकल्पजालं यत्र तद्विचित्त ध्यानम् तदर्थमिति । इदानीं तस्यैव ध्यानस्य तावदागमभाषया विचित्रभेदाः कथ्यन्ते । तथाहि–इष्टवियोगानिष्टसंयोगव्याधिप्रतीकारभोगनिदानेषु वाञ्छारूपं चतुर्विधमार्तध्यानम् । तच्च तारतम्येन मिथ्यादृष्ट्यादिषट्गुणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् । यद्यपि मिथ्यादृष्टीनां तिर्यग्गतिकारणं भवति तथापि बद्धायुष्कं विहाय सम्यगदृष्टीनां न भवति । कस्मादिति चेत् ? स्वशुद्धात्मैवोपादेय इति विशिष्टभावनावलेन तत्कारणभूतसंक्लेशाभावादिति । अथ रौद्रध्यानं कथ्यते–हिंसानन्दमृषानन्दस्तेयानन्दविषयसंरक्षणानन्दप्रभवं रौद्र चतुर्विधम् । तारतम्येन मिथ्यादृष्ट्यादिपञ्चमगुणस्थानवर्तिजीवसम्भवम् । इन्द्रियों के अनिष्ट विषयों में राग-द्वष मत करो, “थिरमिच्छहि जइ चित्तं" यदि उसी परमात्मा के अनुभव में तुम निश्चल चित्त को चाहते हो। किसलिये स्थिर चित्त को चाहते हो ? "विचित्तमाणप्पसिद्धीए" विचित्र अर्थात् अनेक तरह के ध्यान की सिद्धि के लिये। अथवा जहाँ पर चित्त से उत्पन्न होने वाला शुभ-अशुभ विकल्प समूह दूर हो गया है, सो 'विचित्त ध्यान' है, उस विचित्त ध्यान की सिद्धि के लिये। __ अब प्रथम ही आगमभाषा के अनुसार उसी ध्यान के नानाप्रकार के भेदों का कथन करते हैं वह इस प्रकार है इष्ट-वियोग, अनिष्ट-संयोग और रोग इन तीनों को दूर करने में तथा भोगों व भोगों के कारणों में वांछारूप चार प्रकार का आर्तध्यान है (इष्ट का वियोग १, अनिष्ट का संयोग २, रोग ३, इन के होने पर इन के दूर करने की इच्छा करना और भोगनिदानों की वांछा करना )। वह आर्तध्यान तारतमता से मिथ्यादृष्टि गुणस्थान से प्रमत्तगुणस्थान तक के जीवों के होता है । वह आर्तध्यान यद्यपि मिथ्यादृष्टि जीवों के तियेच गति के बंध का कारण होता है तथापि जिस जीव के सम्यक्त्व से पहले तियंच-आयु बंध चुकी, उस को छोड़कर अन्य सम्यग्दृष्टि के वह आर्तध्यान तिर्यंचगति का कारण नहीं है । शङ्का-क्यों नहीं है ? उत्तर-'निज शुद्ध आत्मा ही ग्रहण करने योग्य है' ऐसी भावना के कारण सम्यग्दृष्टि जीवों के तिर्यंचगति का कारणरूप संक्लेश नहीं होता। अब रौद्रध्यान को कहते हैं । रौद्रध्यान-हिंसानन्द (हिंसा करने में आनंद मानना) १, Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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