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१९८] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ४८ तच्च मिथ्यादृष्टीनां नरकगतिकारणमपि बद्धायुष्कं विहाय सम्यग्दृष्टीनां तत्कारणं न भवति । तदपि कस्मादिति चेत् ? निजशुद्धात्मतत्त्वमेवोपादेयमिति विशिष्टभेदज्ञानवलेन तत्कारणभूततीव्रसंक्लेशाभावादिति ।
अतः परम आर्तरौद्रपरित्यागलक्षणमाज्ञापायविपाकसंस्थानविचयसंज्ञचतु#दभिन्नं, तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्ताभिधानचतुगुणस्थानवर्तिजीवसम्भवं, मुख्यवृत्या पुण्यबन्धकारणमपि परम्परया मुक्तिकारणं चेति धर्मध्यानं कथ्यते । तथाहि-स्वयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावे अपि शुद्धजीवादिपदार्थानां सूक्ष्मत्वेऽपि सति "सूक्ष्मं जिनोदितं वाक्यं हेतुभिर्यन्न हन्यते । आज्ञासिद्ध तु तद्ग्राह्य नान्यथावादिनो जिनाः ॥१॥" इति श्लोककथितक्रमेण पदार्थनिश्चयकरणमाज्ञाविचयध्यानं भएयते । तथैव भेदाभेदरत्नत्रयभावनाबलेनास्माकं परेषां वा कदा कर्मणामपायो विनाशो भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयं ज्ञातव्यम् । शुद्धनिश्चयेन शुभाशुभकर्मविपाकरहितोऽप्ययं जीवः
मृषानन्द (झूठ बोलने में आनन्द मानना ) २. स्तेयानन्द (चोरी करने में प्रसन्न होना) ३, विषयसंरक्षणानन्द (परिग्रह की रक्षा में आनन्द मानना) ४ के भेद से चार प्रकार का है। वह मिथ्यादृष्टि से पंचम गुणस्थान तक के जीवों के तारतमता से होता है। रौद्रध्यान मिथ्यादृष्टि जीवों के नरकगति का कारण है, तो भी जिस जीव ने सम्यक्त्व से पूर्व नरकायु बांध ली है उसके अतिरिक्त अन्य सम्यग्दृष्टियों के वह रौद्रध्यान नरकगति का कारण नहीं होता। प्रश्न-ऐसा क्यों है ? उत्तर-सम्यग्दृष्टियों के 'निजशुद्ध-आत्म-तत्त्व ही उपादेय है' इस प्रकार के विशिष्ट भेदज्ञान के बल से नरकगति का कारणभूत तीव्र संक्लेश नहीं होता।
इसके आगे आर्तध्यान तथा रौद्रध्यान के त्यागरूप, १. आज्ञाविचय, २. अपायविचय, ३. विपाकविचय और ४. संस्थानविचय इन चार भेदवाला तारतम वृद्धि के क्रम से असंयतसम्यग्दृष्टि, देशविरत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्त इन चार गुणस्थान वाले जीवों के होनेवाला, और प्रधानता से पुण्यबंध का कारण होने पर भी परम्परा से मोक्ष का कारणभूत, ऐसा धर्मध्यान कहा जाता है । वह इस प्रकार है-स्वयं अल्पबुद्धि हो तथा विशेष ज्ञानी गुरु की प्राप्ति न हो तब शुद्ध जीव आदि पदार्थों की सूक्ष्मता होने पर, 'श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ जो सूक्ष्म तत्त्व है वह हेतुओं से खण्डित नहीं हो सकता, अतः जो सूक्ष्म तत्त्व है उसको जिनेन्द्रदेव की आज्ञानुसार ग्रहण करना चाहिये । क्योंकि श्रीजिनेन्द्र अन्यथावादी (झूठा उपदेश देनेवाले ) नहीं हैं ॥ १ ॥' इस श्लोक के अनुसार पदार्थ का निश्चय करना, 'आज्ञाविचय' प्रथम धर्मध्यान कहलाता है । उसी प्रकार भेद-अभेद-रत्नत्रय की भावना के बल से हमारे अथवा अन्य जीवों के कर्मों का नाश कब होगा, इस प्रकार का चिन्तवन 'अपायविचय' दूसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । शुद्ध निश्चयनय से यह जीव
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