Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 220
________________ गाथा ४८ ] तृतीयोऽधिकारः [ १६६ पश्चादनादिकर्मवन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुःखविपाकफलमनुभवति, पुण्योदयेन देवादिसुखविपाकमनुभवतीति विचारणं विपाकविचयं विशेयम् । पूर्वोक्तलोकानुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयम् । इति चतुर्विधं धर्मध्यानं भवति । अथ पृथक्त्ववितर्कवीचारं एकत्ववितर्कावीचारं सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसंझं व्युपरतक्रियानिवृत्तिसंज्ञं चेति भेदेन चतुर्विधं शुक्लध्यानं कथयति । तद्यथापृथक्त्ववितर्कवींचारं तावत्कथ्यते । द्रव्यगुणपर्यायाणां भिन्नत्वं पृथक्त्वं भण्यते, स्वशुद्धात्मानुभूतिलक्षणं भावश्रुतं तद्वाचकमन्तर्जल्पवचनं वा वितर्को भण्यते, अनीहितवृत्यार्थान्तरपरिणमनम् वचनाद्वचनान्तरपरिणमनम् मनोवचनकाययोगेषु योगायोगान्तरपरिणमनं वीचारो भण्यते । अयमत्रार्थः-यद्यपि ध्याता पुरुषः स्वशुद्धात्मसंवेदनं विहाय बहिश्चिन्तां न करोति तथापि यावतांशेन स्वरूपे स्थिरत्वं नास्ति तावतांशेनानीहितवृत्त्या विकल्पा: स्फुरन्ति, तेन कारणेन पृथक्त्ववितर्कवीचारं ध्यान भएयते । तच्चोपशमश्रेणिविवक्षायामपूर्वोपशमकानिवृत्युपशमकसूक्ष्मसाम्परायोपशमकोपशान्तकषायपर्यन्तगुणस्थानचतुष्टये भवति । क्षपक शुभ-अशुभ कर्मों के उदय से रहित है, फिर भी अनादि कर्म-बन्ध के कारण पाप के उदय से नारक आदि के दुःखरूप फल का अनुभव करता है और पुण्य के उदय से देव आदि के सुखरूप विपाक को भोगता है; इस प्रकार विचार करना सो 'विपाकविचय' तीसरा धर्मध्यान जानना चाहिये । पहले कही हुई लोकानुप्रेक्षा का चितवन करना, 'संस्थानविचय' चौथा धर्मध्यान है । इस तरह चार प्रकार का धर्मध्यान होता है। अब १. पृथक्त्ववितर्कवीचार, २. एकत्ववितर्क अवीचार, ३. सूक्ष्म क्रियाप्रतिपाति, ४. व्युपरतक्रियानिवृत्ति, ऐसे चार प्रकार के शुक्लध्यान को कहते हैं । 'पृथक्त्ववीचार' प्रथम शुक्लध्यान का कथन करते हैं । द्रव्य, गुण और पर्याय के भिन्नपने को 'पृथक्त्व' कहते हैं। निज-शुद्ध-आत्मा का अनुभवरूप भावश्रुत को और निज-शुद्ध-आत्मा को कहनेवाले अन्तरजल्परूप वचन को 'वितर्क' कहते हैं । इच्छा बिना ही एक अर्थ से दूसरे अर्थ में, एक वचन से दूसरे वचन में, मन वचन काय इन तीनों योगों में से किसी एक योग से दूसरे योग में, जो परिणमन ( पलटन ) है, उसको 'वीचार' कहते हैं। इसका यह अर्थ हैयद्यपि ध्यान करनेवाला पुरुष निज-शुद्ध-आत्मसंवेदन को छोड़कर बाह्य पदार्थों की चिन्ता नहीं करता, तथापि जितने अंशों से स्वरूप में स्थिरता नहीं है उतने अंशों से अनिच्छितवृत्ति से विकल्प उत्पन्न होते हैं, इस कारण इस ध्यान को 'पृथक्त्ववितर्कवीचार' कहते हैं । यह प्रथम शुक्लध्यान उपशम श्रेणी की विवक्षा में अपूर्वकरण-उपशमक, अनिवृत्तिकरणउपशमक, सूक्ष्मसाम्पराय-उपशमक और उपशान्तकषाय, इन (८, ६, १०, ११) चार गुण Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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