Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 217
________________ १६६ ] वृहद्रव्यसंग्रह [ गाथा ४८ यूयं ध्यानं सम्यगभ्यसत । तथा हि- तस्मात्कारणात् दृष्टश्रुतानुभूतनानामनोरथरूपसमस्त शुभाशुभर गादिविकल्पजालं त्यक्त्वा, परमस्वास्थ्य समुत्पन्नसहजानन्दैकलक्षणसुखामृतरसास्वादानुभवे स्थित्वा च ध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमिति ॥ ४७ ॥ अथ ध्यातृ-पुरुषलक्षणं कथयति : मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह इट्ठसि । थिरमिच्छहि जह चित्तं विचित्तकारणप्प सिद्धीए ॥ ४८ ॥ मा मुह्यतमा रज्यतमा द्विष्यत इष्टानिष्टार्थेषु । स्थिरं इच्छत यदि चित्तं विचित्रध्यानप्रसिद्ध्यै ॥ ४८ ॥ व्याख्या - " मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह " समस्त मोहरागद्वेषजनितविकल्पजालरहितनिजपरमात्मतत्वभावनासमुत्पन्नपरमानन्दै कलक्षण सुखामृतरसात्सकाशादुद्गता संजाता तत्रैव परमात्मसुखास्वादे लीना तन्मया या तु परमकला परमसंवित्तिस्तत्र स्थित्वा हे भव्या मोहरागद्वेषान्मा कुरुत । केषु विषयेषु १ "इट्ठश्रिट्ठ े सु" सम्बनिताचन्दनताम्बूलादय इष्टेन्द्रियार्थाः, अहिविषकष्टक अथवा इसी कारण देखे सुने और अनुभव किये हुए अनेक मनोरथ रूप शुभाशुभ राग आदि विकल्प समूह का त्याग करके तथा परम-निज - स्वरूप में स्थित होने से उत्पन्न हुए सहज-आनन्दरूप एक-लक्षण वाले सुखरूपी अमृतरस के आस्वाद के अनुभव में स्थित हो कर, तुम ध्यान का अभ्यास करो ॥ ४७ ॥ अब ध्यान करने वाले पुरुष का लक्षण कहते हैं। - गाथार्थ :- यदि तुम नाना प्रकार के ध्यान की सिद्धि के लिये चित्त को स्थिर करना चाहते हो तो इष्ट तथा अनिष्ट इन्द्रियों के विषयों में राग-द्व ेष और मोह मत करो ||४८ || वृत्त्यर्थ::- मा मुज्झह मा रज्जह मा दूसह " समस्त मोह, राग-द्वेष से उत्पन्न विकल्प समूह से रहित निज परमात्मस्वरूप की भावना से उत्पन्न हुआ एक परमानन्दरूप सुखामृतरस से उत्पन्न हुई और उसी परमात्मा के सुख के आस्वाद में लीनरूप जो परम कला अर्थात् परमसंवित्ति (आत्मस्वरूप का अनुभव ), उसमें स्थित होकर, हे भव्य जीवो ! मोह, राग को मत करो । किनमें मोह-राग-द्वेष मत करो ? " इट्ठट्ठि सु" माला, स्त्री, चन्दन, ताम्बूल आदिरूप इन्द्रियों के इष्ट विषयों में व सर्प, विष, कांटा, शत्रु तथा रोग आदि ष Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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