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वृहद्द्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ४६
शुभाशुभमनोविकल्परूपस्य च क्रियाव्यापारस्य योऽसौ निरोधस्त्यागः, स च किमर्थं ? 'भवकारणप्पणास " पञ्चप्रकारभवातीतनिर्दोषपरमात्मनो विलक्षणस्य भवस्य संसारस्य व्यापारकारणभूतो योऽसौ शुभाशुभकर्मावस्तस्य प्रणाशार्थं विनाशार्थमिति । इत्युभयक्रियानिरोधलक्षणचारित्रं कस्य भवति ? " णाणिस्स" निश्चयरत्नत्रयात्मकाभेदज्ञानिनः । पुनरपि किं विशिष्टं ? "जं जिणुतं" यञ्जिनेन वीतराग सर्वज्ञे नोक्तमिति । एवं वीतरागसम्यक्त्वज्ञानाविनाभूतं निश्चयरत्नत्रयात्मकनिश्चय मोक्षमार्ग तृतीयावयवरूपं वीतरागचारित्रं व्याख्यातम् ॥ ४६ ॥ इति द्वितीयस्थले गाथाष्टकं गतम् |
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एवं मोक्षमार्गप्रतिपादकतृतीयाधिकारमध्ये निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसंक्षेपकथनेन सूत्रद्वयम्, तदनन्तरं तस्यैव मोक्षमार्गस्यावयवभूतानां सम्यग्दर्शनज्ञानचारित्राणां विशेषविवरणरूपेण सूत्रषट्कं चेति स्थलद्वय समुदायेनाष्टगाथाभिः प्रथमोऽन्तराधिकारः समाप्तः ।
अतः परं ध्यानध्यातृध्येयध्यानफलकथन मुख्यत्वेन प्रथमस्थले गाथात्रयं, ततः परं पञ्चपरमेष्ठिव्याख्यानरूपेण द्वियीयस्थले गाथापञ्चकं, ततश्च तस्यैव
का निरोध (त्याग), चारित्र है । वह चारित्र किस लिए है ? 'भवकारणप्पाणास" पांच प्रकार के संसार से रहित निर्दोष परमात्मा से विलक्षण जो संसार, उस संसार के व्यापार का कारणभूत शुभ-अशुभ कर्म - आस्रव, उस आस्रव के विनाश के लिये चारित्र है । ऐसा बाह्य, अन्तरङ्ग क्रियाओं के त्यागरूप चारित्र किसके होता है ? 'गाणिस्स' निश्चय रत्नत्रय स्वरूप अभेदज्ञानी जीव के ऐसा चारित्र होता है । वह चारित्र फिर कैसा है ? 'जं जिगुत्तं' वह चारित्र जिनेन्द्रदेव वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ है । इस प्रकार वीतराग सम्यक्त्व व ज्ञान का अविनाभूत तथा निश्चयरत्नत्रय स्वरूप निश्चय मोक्षमार्ग का तीसरा अवयवरूप वीतराग-चारित्र का व्याख्यान हुआ । ४६ । ऐसे दूसरे स्थल में छः गाथायें समाप्त हुई ।
इस प्रकार मोक्षमार्ग को प्रतिपादन करने वाले तीसरे अधिकार में निश्चय व्यवहार रूप मोक्षमार्ग के संक्षेप कथन से दो सूत्र और तदनन्तर उसी मोक्षमार्ग के अवयवरूप सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र के विशेष व्याख्यान रूप से छः सूत्र हैं । इस प्रकार दो स्थलों के समुदायरूप आठ गाथाओं द्वारा प्रथम अन्तराधिकार समाप्त हुआ ।
अब इसके आगे ध्यान, ध्याता (ध्यान करने वाला), ध्येय (ध्यान करने योग्य पदार्थ ) और ध्यान का फल इनके वर्णन की मुख्यता से प्रथम स्थल में तीन गाथायें, तदनन्तर पंचपरमेष्ठियों के व्याख्यान रूप से दूसरे स्थल में पांच गाथायें; और इसके पश्चात् उसी ध्यान
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