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गाथा ४६] तृतीयोऽधिकारः
[ १६३ पहृतसंयमाख्यं शुभोपयोगलक्षणं सरागचारित्राभिधानं भवति । तत्र योऽसौ बहिर्विषये पञ्चेन्द्रियविषयादिपरित्यागः स उपचरितासद्भूतव्यवहारेण यश्चाभ्यन्तरे रागादिपरिहारः स पुनरशुद्धनिश्चयेनेति नयविभागो ज्ञातव्यः । एवं निश्चयचारित्रसाधकं व्यवहारचारित्रं व्याख्यातमिति ॥ ४५ ॥
अथ तेनैव व्यवहारचारित्रेण साध्यं निश्चयचारित्रं निरूपयति :बहिरम्भंतरकिरियारोहो भवकारणप्पणासट्ठ । णाणिस्स जं जिणुत्तं तं परमं सम्मचारित्त ॥ ४६॥ बहिरभ्यन्तरक्रियारोधः भवकारणप्रणाशार्थम् ।
ज्ञानिनः यत् जिनोक्तम् तत् परमं सम्यक्चारित्रम् ॥ ४६॥
व्याख्या- 'तं' तत् 'परमं' परमोपेक्षालक्षणं निर्विकारस्वसंविच्यात्मकशुद्धोपयोगाविनाभूतं परमं 'सम्मचारित्त' सम्यक्चारित्रं ज्ञातव्यम् । तत्कि'बहिरभंतरकिरियारोहो' निष्क्रियनित्यनिरञ्जनविशुद्धज्ञानदर्शनस्वभावस्य निजात्मनः प्रतिपक्षभूतस्य बहिर्विषये शुभाशुभवचनकायव्यापाररूपस्य तथैवाभ्यन्तरे
गुप्तिरूप है, तो भी अपहृतसंयम नामक शुभोपयोग लक्षण वाला सरागचारित्र होता है। उसमें भी बाह्य में जो पांचों इन्द्रियों के विषय आदि का त्याग है, वह उपचरित-असद्भूतव्यवहार नय से चारित्र है और अन्तरंग में जो राग आदि का त्याग है, वह अशुद्ध निश्चय नय से चारित्र है । इस तरह नय-विभाग जानना चाहिये। ऐसे निश्चयचारित्र को साधने वाले व्यवहारचारित्र का व्याख्यान किया ॥ ४५ ॥
अब उसी व्यवहारचारित्र से साध्य निश्चयचारित्र का निरूपण करते हैं:
गाथार्थ :-संसार के कारणों को नष्ट करने के लिये ज्ञानी जीव के जो बाह्य और अन्तरङ्ग क्रियाओं का निरोध है; श्री जिनेन्द्र का कहा हुआ वह उत्कृष्ट सम्यकचारित्र है।४६।
वृत्त्यर्थ :-'तं' वह 'परमं' परम उपेक्षा लक्षण वाला (संसार, शरीर, असंयम आदि में अनादर) तथा निर्विकार स्वसंवेदनरूप शुद्धोपयोग का अविनाभूत उत्कृष्ट 'सम्मचारित्तं' सम्यकचारित्र जानना चाहिए । वह क्या ? 'बहिरभंतरकिरियारोहो' निःक्रिय-नित्य-निरंजननिर्मल ज्ञानदर्शन स्वभाव वाली निज-आत्मा से प्रतिपक्षभूत (प्रतिकूल), बाह्य में वचन काय के शुभाशुभ व्यापाररूप, अन्तरंग में मन के शुभाशुभ विकल्परूप, ऐसी क्रियाओं के व्यापार
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