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गाथा ४७ ]
तृतीयोऽधिकारः ध्यानस्योपसंहाररूपविशेषव्याख्यानेन तृतीयस्थले सूत्रचतुष्टयमिति स्थलत्रयसमुदायेन द्वादशसूत्रेषु द्वितीयान्तराधिकारे समुदायपातनिका । तथाहि-निश्चयव्यवहारमोक्षमार्गसाधकध्यानाभ्यासं कुरुत यूयमित्युपदिशति :
दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पोउणदि जं मुणी णियमा । तमा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह ॥४७॥ द्विविधं अपि मोक्षहेतु ध्यानेन प्राप्नोति यत् मुनिः नियमात् ।
तस्मात् प्रयत्नचित्ताः यूयं ध्यानं समभ्यसत ॥ ४७ ॥
व्याख्या- "दुविहं पि मोक्खहेउं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा" द्विविधमपि मोक्षहेतु ध्यानेन प्रामोति यस्मात् मुनिनियमात् । तद्यथा-निश्चयरत्नत्रयात्मकं निश्चयमोक्षहेतु निश्चयमोक्षमार्ग तथैव व्यवहाररत्नत्रयात्मकं व्यवहारमोक्षहेतु व्यवहारमोक्षमार्ग च यं साध्यसाधकभावेन कथितवान् पूर्व, तद् द्विविधमपि निर्विकारस्वसंविच्यात्मकपरमध्यानेन मुनिः प्रामोति यस्मात्कारणात् "तमा पयत्तचित्ता जूयं झाणं समब्भसह" तस्मात् प्रयत्नचित्ताः सन्तो हे भव्या
के उपसंहाररूप विशेष व्याख्यान द्वारा तीसरे स्थल में चार गाथायें, इस प्रकार तीन स्थलों के समुदाय से बारह गाथासूत्रमयी दूसरे अंतराधिकार की समुदाय रूप भूमिका है।
तथाहि-निश्चय और व्यवहार मोक्षमार्ग को साधने वाले ध्यान का अभ्यास करो, । ऐसा उपदेश देते हैं :
गाथार्थ :-ध्यान करने से मुनि नियम से निश्चय और व्यवहार रूप मोक्षमार्ग को पाते हैं । इस कारण तुम चित्त को एकाग्र करके उस ध्यान का भले प्रकार अभ्यास करो।४७)
वृत्त्यर्थ :--'दुविहं पि मोक्खहे उं झाणे पाउणदि जं मुणी णियमा' क्योंकि मुनि नियम से ध्यान द्वारा दोनों प्रकार के मोक्ष-कारणों को प्राप्त होते हैं । विशेष-निश्चय-रत्नत्रय-स्वरूप निश्चय-मोक्ष-कारण अर्थात् निश्चय मोक्ष-मार्ग और इसी प्रकार व्यवहार-रत्नत्रय-स्वरूप व्यवहार-मोक्षहेतु अर्थात् व्यवहार-मोक्षमार्ग, जिनको साध्यसाधक भाव से (निश्चय-साध्य और व्यवहार-साधक है) पहले कहा है, उन दोनों प्रकार के मोक्षमार्गों को, क्योंकि मुनि निर्विकार स्वसंवेदन स्वरूप परमध्यान द्वारा प्राप्त होते हैं, 'तझा पयत्तचित्ता जूयं भाणं समब्भसह' इसी कारण एकाग्रचित्त होकर हे भव्यजनों ! तुम भले प्रकार से ध्यान का अभ्यास करो,
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