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१८८ ] वृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ४४ परिच्छिनत्तीति । अयं तु विशेषः-दर्शनेनात्मनि गृहीते सत्यात्माविनाभूतं ज्ञानमपि गृहीतं भवति; ज्ञाने च गृहीते सति ज्ञानविषयभूतं बहिर्वस्त्वपि गृहीतं भवति इति । अथोक्तं भवता यद्यात्मग्राहकं दर्शनं भण्यते, तर्हि 'जं सामएणं गहणं भावाणं तदर्शनम्' इति गाथार्थः कथं घटते ? तत्रोत्तरं सामान्यग्रहणमात्मगृहणं तदर्शनम् । कस्मादिति चेत् ? अात्मा वस्तुपरिच्छित्तिं कुर्वन्निदं जानामीदं न जानामीति विशेषपक्षपातं न करोति; किन्तु सामान्येन वस्तु परिच्छिनत्ति तेन् कारणेन सामान्यशब्देनात्मा भण्यत इति गाथार्थः।
किंबहुना, यदि कोऽपि तार्थ सिद्धान्तार्थ च ज्ञात्वैकान्तदुरागृहत्यागेन नयविभागेन मध्यस्थवृत्या व्याख्यानं करोति, तदा द्वयमपि घटत इति । कथमिति चेत् ? तर्के मुख्यवृत्त्या परसमयव्याख्यानं, तत्र यदा कोऽपि परसमयी पृच्छति जैनागमे दर्शनं ज्ञानं चेति गुणद्वयं जीवस्य कथ्यते तत्कथं घटत इति । तदा तेषामात्मग्राहकं दर्शनमिति कथिते सति ते न जानन्ति । पश्चादाचार्यस्तेषां प्रतीत्यर्थ स्थूलव्याख्यानेन बहिर्विषये यत् सामान्यपरिच्छेदनं तस्य सत्तावलोकन
बाह्य विषय में दर्शनाभाव होने पर भी आत्मा ज्ञान द्वारा विशेष रूप से सब पदार्थों को जानता है । विशेष यह है-जब दर्शन से आत्मा का ग्रहण होता है, तब आत्मा में व्याप्त ज्ञान का भी दर्शन द्वारा ग्रहण होजाता है; ज्ञान के ग्रहण होजाने पर ज्ञान के विषयभूत बाह्य वस्तु का भी ग्रहण हो जाता है। शङ्का-जो आत्मा को ग्रहण करता है, यदि आप उसको दर्शन कहते हो, तो "जो पदार्थों का सामान्य ग्रहण है वह दर्शन है" यह गाथा-अर्थ आपके कथन में कैसे घटित होता है ? उत्तर-वहाँ पर 'सामान्य-ग्रहण' शब्द का अर्थ 'आत्मा का ग्रहण करना' है । 'सामान्य ही आत्मा है', ऐसा अर्थ क्यों है ? उत्तर-वस्तु का ज्ञान करता हुआ आत्मा, 'मैं इसको जानता हूँ, इसको नहीं जानता हूँ', इस प्रकार का विशेष पक्षपात नहीं करता है; किन्तु सामान्यरूप से पदार्थ को जानता है । इस कारण 'सामान्य' शब्द से 'आत्मा' कहा जाता है । यह गाथा का अर्थ है ।
बहुत कहने से क्या-यदि कोई भी तर्क और सिद्धान्त के अर्थ को जानकर, एकान्त दुराग्रह को त्याग करके, नयों के विभाग से मध्यस्थता धारण करके; व्याख्यान करता है तब तो तर्क-अर्थ व सिद्धान्त-अर्थ ये दोनों ही सिद्ध होते हैं। कैसे सिद्ध होते हैं ? उत्तर-तर्क में मुख्यता से अन्य-मतों का व्याख्यान है । इसलिये उसमें यदि कोई अन्य-मतावलम्बी पूछे कि, जैन-सिद्धान्त में जीव के दर्शन और ज्ञान, जो दो गुण कहे हैं; वे कैसे घटित होते हैं ? तब इसके उत्तर में उन अन्य मतियों को कहा जाय कि, 'जो आत्मा को ग्रहण करने वाला है, वह दर्शन है' तो वे अन्य मती इसको नहीं समझते । तब आचार्यों ने उनको
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