Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 202
________________ [ १८१ गाथा ४२ ] तृतीयोऽधिकारः च मदीयापध्यानं कोऽपि न जानातीति मत्वा स्वशुद्धात्मभावनासमुत्पन्नसदानन्दैकलक्षणसुखामृतरसनिर्मलजलेन चित्तशुद्धिमकुर्वाणः . सन्नयं जीवो बहिरङ्गबकवेषेण यन्लोकरञ्जनां करोति तन्मायाशल्यं भण्यते । निजनिरञ्जननिर्दोषपरमात्मैवोपादेय इति रुचिरूपसम्यक्त्वाद्विलक्षणं मिथ्याशल्यं भण्यते । निर्विकारपरमचैतन्यभावनोत्पन्नपरमाह्लादेकरूपसुखामृतरसास्वादमलभमानोऽयं जीवो दृष्टश्रुतानुभूतभोगेषु यन्नियतम् निरन्तरम् चिरम् ददाति तन्निदानशल्यमभिधीयते । इत्युक्तलक्षणशल्यत्रयविभावपरिणामप्रभृतिसमस्तशुभाशुभसङ्कन्पविकल्परहितेन परमस्वास्थ्यसंवित्तिसमुत्पन्नतात्त्विकपरमानन्दैकलक्षणसुखामृततृप्तेन स्वेनात्मना स्वस्य सम्यग्निर्विकल्परूपेण वेदनं परिज्ञानमनुभवनमिति निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानमेव निश्चयज्ञानं भण्यते । अत्राह शिष्यः । इत्युक्तप्रकारेण प्राभूतग्रन्थे यन्निर्विकल्पस्वसंवेदनज्ञानं भएयते, तन्न घटते । कस्मादितिचेत् तदुच्यते । सत्तावलोकरूपं चक्षुरादिदर्शनं यथा जैनमते निर्विकल्पं कथ्यते, तथा बौद्धमते ज्ञानं निर्विकल्पकं भएयते, परं छेदने आदि की बांछारूप मेरा दुर्ध्यान है, उस को कोई भी नहीं जानता है; ऐसा मानकर, निज-शुद्ध-आत्म-भावना से उत्पन्न, निरन्तर आनन्दरूप एक लक्षण वाला सुख-अमृतरसरूप निर्मल जल से अपने चित्त की शुद्धि को न करता हुआ, यह जीव बाहर में बगुले जैसे वेष को धारण कर, लोक को प्रसन्न करता है, वह माया-शल्य कहलाती है । 'अपना निरंजन दोष रहित परमात्मा ही उपादेय है', ऐसी रुचि रूप सम्यक्त्व से विलक्षण, मिथ्या-शल्य कहलाती है। निर्विकार-परम-चैतन्य-भावना से उत्पन्न एक परम-आनन्द-स्वरूप सुखामृत-रस के स्वाद को प्राप्त न करता हुआ, यह जीव, देखे-सुने और अनुभव में आये हुए भोगों में जो निरन्तर चित्त को देता है, वह निदान-शल्य है । इस प्रकार उक्त लक्षण वाले माया, मिथ्या और निदान-शल्य रूप विभाव परिणाम आदि समस्त शुभ-अशुभ संकल्प-विकल्प से रहित, परम निज-स्वभाव के अनुभव से उत्पन्न यथार्थ परमानन्द एक लक्षण स्वरूप सुखामृत के रस-आस्वादन से तृप्त ऐसी अपनी आत्मा द्वारा जो निजस्वरूप का संवेदन, जानना व अनुभव करना है, वही निर्विकल्प-स्वसंवेदनज्ञान-निश्चयज्ञान कहा जाता है। यहाँ शिष्य की शंका–उक्त प्रकार से प्राभृत ( पाहुड़) शास्त्र में जो विकल्परहित स्वसंवेदन ज्ञान कहा गया है, वह घटित नहीं होता। (यदि कहो) क्यों नहीं घटित होता, तो कहता हूँ-जैनमत में सत्तावलोकनरूप चक्षु-आदि-दर्शन, जैसे निर्विकल्प कहा जाता है; वैसे ही बौद्धमत में 'ज्ञान निर्विकल्प कहलाता है, किन्तु निर्विकल्प होते हुए भी विकल्प को उत्पन्न करने वाला कहा गया है । जैनमत में तो ज्ञान विकल्प को उत्पन्न करने वाला ही Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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