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१८४ ] वृहद्र्व्य संग्रहः
[गाथा ४४ __अथ छद्मस्थानां ज्ञानं सत्तावलोकनदर्शनपूर्वकं भवति, मुक्तात्मनां युगपदिति प्रतिपादयति :
दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं ण दोषिण उवउग्गा । जुगवं जला केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि ॥ ४४ ॥ दर्शनपूर्व ज्ञानं छद्मस्थानां न द्वौ उपयोगौ ।
युगपत् यस्मात् केवलिनाथे युगपत् तु तौ द्वौ अपि ॥४४॥
व्याख्या- "दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं" सत्तावलोकनदर्शनपूर्वक ज्ञानं भवति छमस्थानां संसारिणां । कस्मात् ? 'ण दोषिण उवउग्गा जुगवं जमा' ज्ञानदर्शनोपयोगद्वयं युगपन्न भवति यस्मात् । 'केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि' केवलिनाथे तु युगपत्तौ ज्ञानदर्शनोपयोगी द्वौ भवत इति । .. अथ विस्तर:-चक्षुरादीन्द्रियाणां स्वकीयस्वकीयक्षयोपशमानुमारेण तद्योग्यदेशस्थितरूपादिविषयाणां ग्रहणमेव सन्निपातः सम्बन्धः सन्निकर्षो भएयते। न च नैयायिकमतवच्चक्षुरादीन्द्रियाणां रूपादिस्वकीयस्वकीयविषयपावें गमनं
छमस्थों के सत्तावलोकनरूप दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है, और मुक्त जीवों के दर्शन और ज्ञान एक ही साथ होते हैं, अब ऐसा बतलाते हैं :
गाथार्थ :-छद्मस्थ जीवों के दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है। क्योंकि, छद्मस्थों के ज्ञान और दर्शन ये दोनों उपयोग एक साथ नहीं होते । केवली भगवान् के ज्ञान और दर्शन ये दोनों ही उपयोग एक साथ होते हैं ।। ४४ ॥
वृत्त्यर्थ:-"दसणपुव्वं णाणं छदमत्थाणं” छद्मस्थ-संसारी जीवों के सत्तावलोकनरूप दर्शन पूर्वक ज्ञान होता है । क्यों ? "ण दोषिण उवउग्गा जुगवं जह्मा" क्योंकि छद्मस्थों के ज्ञानोपयोग और दर्शनोपयोग ये दोनों एक साथ नही होते । "केवलिणाहे जुगवं तु ते दो वि" और केवली भगवान के ज्ञान दर्शन दोनों उपयोग एक ही साथ होते हैं।
इसका विस्तार-चक्षु आदि इन्द्रियों के अपने अपने क्षयोपशम के अनुसार अपने योग्य देश में विद्यमान रूप आदि अपने विषयों का ग्रहण करना ही सन्निपात, सम्बन्ध अथवा सन्निकर्ष कहा गया है । यहां नैयायिक मत के समान चक्षु आदि इन्द्रियों का जो अपने अपने रूप आदि विषयों के पास जाना है, उसको 'सन्निकर्ष' न कहना चाहिये
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