Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 199
________________ १७८] वृहद्रव्यसंग्रहः [ गाथा ४२ संशयविमोहविभ्रमविवर्जितं आत्मपरस्वरूपस्य । ग्रहणं सम्यक् ज्ञानं साकारं अनेकभेदं च ॥ ४२ ॥ व्याख्या :- "संसयविमोहविब्भमविवजिय" 'संशय:' शुद्धात्मतस्वादिप्रतिपादकमागमज्ञानं किं वीतरागसर्वज्ञप्रणीतं भविष्यति परसमयपूणीतं वेति, संशयः । तत्र दृष्टान्त:-स्थाणुर्वा पुरुषो वेति । 'विमोहः' परस्परसापेक्षनयद्वयेन द्रव्यगुणपर्यायादिपरिज्ञानाभावो विमोहः । तत्र दृष्टान्तः-गच्छत्त णस्पर्शवदिग्मोहवद्वा । 'विभ्रमः' अनेकान्तात्मकवस्तुनो नित्यक्षणिकैकान्तादिरूपेण ग्रहणं विभ्रमः । तत्र दृष्टान्तः-शुक्तिकायां रजतविज्ञानवत् । 'विवज्जियं' इत्युक्तलक्षणसंशयविमोहविभ्रमैर्वर्जितं, "अप्पपरसरूवस्स गहणं" सहजशुद्धकेवलज्ञानदर्शनस्वभावस्वात्मरूपस्य गृहणं परिच्छेदनं परिच्छित्तिस्तथा परद्रव्यस्य च भावकर्मद्रव्यकर्मनोकर्मरूपस्य जीवसम्बन्धिनस्तथैव पुद्गलादिपञ्चद्रव्यरूपस्य परकीयजीवरूपस्य च परिच्छेदनं यत्तत् “सम्मपणांणं" सम्यग्ज्ञानं भवति । तच्च कथंभूतं ? "साया" घटोऽयं पटोऽयमित्यादिग्रहणव्यापाररूपेण साकारं सविकल्पं व्यवसायात्मकं निश्चयात्मकमित्यर्थः । पुनश्च किं विशिष्टं ? "अणेयभेयं तु" अनेकभेदं तु पुनरिति । वृत्त्यर्थ:-'संसयविमोहविब्भमविवज्जियं' संशय-शुद्ध आत्मतत्त्व आदि का प्रतिपादक शास्त्र ज्ञान, क्या वीतराग-सर्वज्ञ द्वारा कहा हुआ सत्य है या अन्य-मतियों द्वारा कहा हुआ सत्य है, यह संशय है । इसका दृष्टान्त-स्थाणु (ठूठ) है या मनुष्य । विमोहपरस्पर सापेक्ष द्रव्यार्थिक व पर्यायार्थिक इन दो नयों के अनुसार द्रव्य-गुण-पर्याय आदि का नहीं जानना, विमोह है । इसका दृष्टान्त-गमन करते हुए पुरुष के पैर में तृण आदि को स्पर्श होने पर स्पष्ट ज्ञात नहीं होता क्या लगा, अथवा जंगल में दिशा का भूल जाना । विभ्रम-अनेकान्तात्मक वस्तु को 'यह नित्य ही है, यह अनित्य ही है। ऐसे एकान्त रूप जानना, विभ्रम है। इसका दृष्टान्त-सीप में चांदी और चांदी में सीप का ज्ञान । 'विवज्जियं' इन पूर्वोक्त लक्षणों वाले संशय, विमोह और विभ्रम से रहित, 'अप्पपरसरूवस्स गहणं' सहज-शुद्ध-केवल-ज्ञान-दर्शन-स्वभाव निज-आत्म-स्वरूप का जानना और परद्रव्य का अर्थात् जीव सम्बन्धी भावकर्म, द्रव्यकर्म, नोकर्म का एवं पुद्गल आदि पाँच द्रव्यों का और परजीव के स्वरूप का जानना, सो 'सम्मण्णाणं' सम्यक ज्ञान है । वह कैसा है ? 'साया' यह घट है, यह वस्त्र है इत्यादि जानने रूप व्यापार से साकार, विकल्प सहित, व्यवसायात्मक तथा निश्चय रूप ऐसा 'साकार' का अर्थ है । और फिर कैसा है ? 'अणेयभेयं तु' अनेक भेदों वाला है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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