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गाथा ४१] तृतीयोऽधिकारः
[ १६३ ख्याय तदनन्तरं द्वितीयस्थले गाथाषट्कपर्यन्तं सम्यक्त्वादित्रयं क्रमेण विवृणोति । तत्रादौ सम्यक्त्वमाह :
जीवादीसदहणं सम्मत्त स्वमप्पणो तं तु । दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्मं खु होदि सदि जमि ॥४१॥ जीवादिश्रद्धानं सम्यक्त्वं रूपं आत्मनः तत् तु । दुरभिनिवेशविमुक्त ज्ञानं सम्यक् खलु भवति सति यस्मिन् ॥४१॥
व्याख्या :-'जीवादीसदहणं सम्मत्त' वीतरागसर्वज्ञप्रणीतशुद्धजीवादितत्त्वविषये चलमलिनागाढरहितत्वेन श्रद्धानं रुचिनिश्चय इदमेवेत्थमेवेति निश्चयबुद्धिः सम्यग्दर्शनम् । 'रूवमप्पणो तं तु तच्चाभेदनयेन रूपं स्वरूपं तु; पुनः कस्य ? आत्मन आत्मपरिणाम इत्यर्थः । तस्य सामर्थ्य माहात्म्यं दर्शयति । "दुरभिणिवेसविमुक्कं गाणं सम्मं खु होदि सदि जमि" यस्मिन् सम्यक्त्वे सति ज्ञानं सम्यग् भवति स्फुटं । कथम्भूतं सम्यग्भवति ? “दुरभिणिवेसविमुक्कं" चलितप्रतिपत्तिगच्छतृणस्पर्शशुक्तिकाशकलरजतविज्ञानशदृशैः संशयविभ्रमविमो हैमुक्तं रहितमित्यर्थः ।
व्यवहार मोक्ष-मार्ग का स्वरूप व्याख्यान करके अब आचार्य दूसरे स्थल में छः गाथाओं तक सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान तथा सम्यक्चारित्र को क्रम से वर्णन करते हैं। उनमें प्रथम ही सम्यग्दर्शन को कहते हैं :
गाथार्थ :-जीव आदि पदार्थों का श्रद्धान करना, सम्यक्त्व है । वह सम्यक्त्व आत्मा का स्वरूप है तथा इस सम्यक्त्व के होने पर (संशय, विपर्यय एवं अनध्यवसाय इन तीनों) दुरभिनिवेशों से रहित सम्यग्ज्ञान होता है ।। ४१ ॥
वृत्त्यर्थ :--'जीवादीसहहणं सम्मत्तं' वीतराग सर्वज्ञ द्वारा कहे हुए शुद्ध जीव आदि तत्त्वों में, चल-मलिन-अगाढ रहित श्रद्धान, रुचि, निश्चय अथवा 'जो जिनेन्द्र ने कहा वही है, जिस प्रकार से जिनेन्द्र ने कहा है उसी प्रकार है' ऐसी निश्चय रूप बुद्धि सम्यग्दर्शन है: 'रूवमप्पणो तं तु वह सम्यग्दर्शन अभेद नय से स्वरूप है; किसका स्वरूप है ? आत्मा का,
आत्मा का परिणाम है । उस सम्यग्दर्शन के सामर्थ्य अथवा माहात्म्य को दिखाते हैं'दुरभिणिवेसविमुक्कं णाणं सम्म खु होदि सदि जमि' जिस सम्यक्त्व के होने पर ज्ञान सम्यक हो जाता है । 'सम्यक' किस प्रकार होता है ? 'दुरभिणिवेसविमुक्क' ( यह पुरुष है या काठ का ठूठ है, ऐसे दो कोटि रूप) चलायमान संशयज्ञान, गमन करते हुए तृण
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