Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 194
________________ गाथा ४१] तृतीयोऽधिकारः [ १७३ अथ स्थितीकरणं कथयति । भेदाभेदरत्नत्रयधारकस्य चातुर्वर्णसङ्घस्य मध्ये यदा कोऽपि दर्शनचारित्रमोहोदयेन दर्शनं ज्ञानं चारित्रं वा परित्युक्तं वाञ्छति तदागमाविरोधेन यथाशक्त्या धर्मश्रवणेन वा अर्थेन वा सामर्थ्येन वा केनाप्युपायेन यद्धर्मे स्थिरत्वं क्रियते तद्व्यवहारेण स्थितीकरणमिति । तत्र च पुष्पडालतपोधनस्य स्थिरीकरणप्रस्तावे वारिषेणकुमारकथागमप्रसिद्धेति । निश्चयेन पुनस्तेनैव व्यवहारेण स्थितीकरणगुणेन धर्मदृढत्वे जाते सति दर्शनचारित्रमोहोदयजनितसमस्तमिथ्यात्वरागादिविकल्पजालत्यागेन निजपरमात्वस्वभावभावनोत्पन्नपरमानन्दैकलक्षणसुखामृतरमास्वादेन तल्लयतन्मयपरमसमरसीभावेन चित्तस्थितीकरणमेव स्थितीकरणमिति ॥ ६॥ अथ वात्सल्याभिधानं सप्तमाङ्ग प्रतिपादयति । बाह्याभ्यन्तररत्नत्रयाधारे चतुर्विधसंघे वत्से धेनुवत्पञ्चेन्द्रियविषयनिमि पुत्रकलत्रसुवर्णादिस्नेहवद्वा यदकृत्रिमस्नेहकरणं तद्व्यवहारेण वात्सल्यं भएयते । तत्र च हस्तिनागपुराधिपतिपद्मरोजसंबन्धिना बलिनामदुष्टमन्त्रिणा निश्चयव्यवहाररत्नत्रयाराधकाकम्पनाचार्यप्रभृतिसप्तशत यतीनामुपसर्गे क्रियमाणे सति विष्णुकुमारनाम्ना निश्चयव्यवहारमोक्ष अब स्थितीकरण गुण को कहते हैं । भेद अभेद रत्नत्रय के धारक (मुनि, आर्यिका, श्रावक, श्राविका) चार प्रकार के संघ में से यदि कोई दर्शन मोहनीय के उदय से दर्शन-ज्ञान को या चारित्र मोहनीय के उदय से चारित्र को छोड़ने की इच्छा करे तो यथाशक्ति शास्त्रानुकूल धर्मोपदेश से, धन से या सामर्थ्य से या अन्य किसी उपाय से उस को धर्म में स्थिर कर देना, वह व्यवहार से स्थितीकरण है । पुष्पडाल मुनि को धर्म में स्थिर करने के प्रसंग में वारिषेण की कथा आगम-प्रसिद्ध है। उसी व्यवहार स्थितीकरण गुण से धर्म में दृढता होने पर दर्शन-चारित्र-मोहनीय-उदय जनित समस्त मिथ्यात्व-राग आदि विकल्पों के त्याग द्वारा निज-परमात्म-स्वभाव भाव की भावना से उत्पन्न परम-आनन्द सुखामृत के आस्वादरूप परमत्मा में लीन अथवा परमात्मस्वरूप में समरसी भाव से चित्त का स्थिर करना, निश्चय से स्थितीकरण है ।६। अब वात्सल्य नामक सप्तम अंग का प्रतिपादन करते हैं। गाय बछड़े की प्रीति के सदृश अथवा पांचों इन्द्रियों के विषयों के निमित्तभूत पुत्र, स्त्री, सुवर्ण आदि में स्नेह की भांति, बाह्म-आभ्यन्तर रत्नत्रय के धारक चारों प्रकार के संघ में स्वाभाविक स्नेह करना, वह व्यवहारनय से वात्सल्य कहा जाता है। हस्तिनागपुर के राजा पद्मराज के बलि नामक दुष्ट मंत्री ने जब निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय के आराधक श्री अकंपनाचार्य आदि सातसौ मुनियों को उपसर्ग किया तब निश्चय तथा व्यवहार मोक्षमार्ग के आराधक विष्णुकुमार महामुनीश्वर ने विक्रिया ऋद्धि के प्रभाव Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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