Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 195
________________ बृहद् द्रव्य संग्रहः [ गाथा ४१ १७४] मार्गाराधक परमयतिना विकुर्वद्विप्रभावेण वामनरूपं कृत्वा बलिमन्त्रिपार्श्वे पादत्रय प्रमाणभूमिप्रार्थनं कृत्वा पश्चादेकः पादो मेरुमस्तके दत्तो द्वितीयो मानुषोत्तरपर्वते तृतीयपादस्यावकाशो नास्तीति वचनछलेन मुनिवात्सल्यनिमितं बलिमन्त्री बद्ध इत्येका तावदागमप्रसिद्धा कथा । द्वितीया च दश पुस्नगराधिपतेर्वज्रकर्णनाम्नः उज्जयिनी नगराधिपतिना सिंहोदरमहाराजेन जैनोऽयं, मम नमस्कारं न करोतीति म दशपुरनगरं परिवेष्टन्य घोरोपसर्गे क्रियमाणे भेदाभेदरत्नत्रय भावनाप्रियेण रामस्वामिना वज्रकर्णवात्सम्यनिमित्तं सिंहोदरो बद्ध इति रामायणमध्ये प्रसिद्ध यं वात्सल्यकथेति । निश्चयवात्सल्यं पुनस्तस्यैव व्यवहारवात्सल्यगुणस्य सहकारित्वेन धर्मे वे जाते सति मिथ्यात्वरागादिसमस्त शुभाशुभ वहिर्भावेषु प्रीतिं त्यक्त्वा रागादिविकल्पोपाधिरहितपरमस्वास्थ्यसंवित्तिसञ्जात सदानन्दै कलक्षण सुखामृतरसास्वादं प्रति प्रीतिकरणमेवेति सप्तमाङ्ग व्याख्यातम् । ७ । अथाष्टमाङ्ग ं नाम प्रभावनागुणं कथयति । श्रावकेन दानपूजादिना तपोधनेन च तपः श्रुतादिना जैनशासनप्रभावना कर्त्तव्येति व्यवहारेण प्रभावनागुणो वामन रूप को धारण करके बलि नामक दुष्ट मंत्री के पास से तीन पग प्रमाण पृथ्वी की याचना की, और जब बलि ने देना स्वीकार किया, तब एक पग तो मेरु के शिखर पर दिया, दूसरा मानुषोत्तर पर्वत पर दिया और तीसरे पाद को रखने के लिये स्थान नहीं रहा तब वचनछल से मुनियों के वात्सल्य निमित्त बलि मन्त्री को बाँध लिया । इस विषय में यह एक आगम-प्रसिद्ध कथा है । दशपुर नगर के वज्रकर्ण नामक राजा की दूसरी कथा इस प्रकार है— उज्जयिनी के राजा सिंहोदर ने 'वज्रकर्ण जैन है और मुझको नमस्कार नहीं करता है' ऐसा विचार करके, वज्रकर्ण से नमस्कार कराने के लिये दशपुर नगर को घेर कर घोर उपसर्ग किया। तब भेदाभेद रत्नत्रय भावना के प्रेमी श्री रामचन्द्र ने वज्रकर्ण से वात्सल्य के लिये सिंहोदर को बाँध लिया । यह वात्सल्य संबंधी कथा रामायण (पद्मपुराण) में प्रसिद्ध है । इसी व्यवहार - वात्सल्यगुण के सहकारीपने से धर्म में दृढ़ता हो जाने पर मिथ्यात्व राग आदि समस्त शुभ-अशुभ बाह्य पदार्थों में प्रीति छोड़कर रागादि विकल्पों की उपाधिरहित परमस्वास्थ्य के अनुभव से उत्पन्न सदा आनन्द रूप सुखमय अमृत के आस्वाद के प्रति प्रीति का करना ही निश्चय वात्सल्य है । इस प्रकार सप्तम 'वात्सल्य' अङ्ग का व्याख्यान हुआ । ७ । अब अष्टम प्रभावनागुण को कहते हैं। श्रावक को तो दान पूजा आदि द्वारा और कोप, आदि से जैन धर्म की प्रभावना करनी चाहिये। यह व्यवहार से प्रभावना गुण जानना चाहिये । इस गुण के पालने में, उत्तर मथुरा में जिनमत की प्रभावना करने Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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