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गाथा ४१ ]
तृतीयोऽधिकारः
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भविष्यतीति जैनागमे भणितं तिष्ठतीति तथैवातिमुक्तभट्टारकैरपि कथितमिति निश्चित्य कंसाय स्वकीयं बालकं दत्तम् । तथा शेषभव्यैरपि जिनागमे शंका न कर्तव्येति । इदं व्यवहारेण निःशंकितत्वं व्याख्यानम् । निश्चयेन पुनस्तस्यैव व्यवहारनिःशंकागुणस्य सहकारित्वेनेह लोक परलोकात्रा णागुप्तिमरणव्याधिवेदनाकस्मिक अभिधानमसप्तकं मुक्त्वा घोरोपसर्ग परीपदप्रस्तावेऽपि शुद्धोपयोगलक्षणनिश्चयरत्नत्रयभावनैव निशंकगुणो ज्ञातव्य इति ॥ १ ॥
अथ निष्कांक्षितागुणं कथयति । इहलोकपरलोकाशारूपभोगाकांचानिदानत्यागेन केवलज्ञानाद्यनन्तगुणव्यक्तिरूपमोक्षार्थं दानपूजातपश्चरणाद्यनुष्ठान करणं निष्कांक्षागुणो भण्यते । तथानन्तमतीकन्याकथा प्रसिद्धा । द्वितीया च सीतामहो -- देवीकथा । सा कथ्यते । सीता यदा लोकापवादपरिहारार्थं दिव्ये शुद्धा जाता तदा रामस्वामिना दत्त पट्टमहादेवीविभूतिपदं त्यक्त्वा सकलभूषणानगारकेवलिपादमूले कृतान्तवक्रादिराजभिस्तथा बहुराज्ञीभिश्च सह जिनदीक्षां गृहीत्वा शशिप्रभाधार्मिकासमुदायेन सह ग्रामपुरखेटकादिविहारेण भेदाभेदरत्नत्रयभावनया द्विषष्टिवर्षाणि
नवमे प्रतिनारायण का और कंस का भी मरण होगा; यह जैनागम में कहा है और श्री भट्टारक प्रतिमुक्त स्वामी ने भी ऐसा ही कहा है, इस प्रकार निश्चय करके कंस को अपना बालक देना स्वीकार किया । इसी प्रकार अन्य भव्य जीवों को भी जैन आगम में शंका नहीं नहीं करनी चाहिये | यह व्यवहार नय से निःशङ्कित अंग का व्याख्यान किया । निश्चय नय से उस व्यवहार निःशंक गुण की सहायता से, इस लोक का भय १, परलोक का भय २,
रक्षा का भय ३, अगुप्ति (रक्षा स्थान के अभाव का ) भय ४, मरण भय ५, व्याधि-वेदना भय ६, आकस्मिक भय ७ । इन सात भयों को छोड़कर घोर उपसर्ग तथा परीषहों के आ जाने पर भी, शुद्ध उपयोग रूप निश्चय रत्नत्रय की भावना को ही निःशंकित गुण जानना चाहिये ॥ १ ॥
निष्कांक्षित गुण को कहते हैं - इस लोक तथा परलोक सम्बन्धि आशारूप भोगाकांक्षानिदान के त्याग द्वारा केवल ज्ञान आदि अनन्त गुणों की प्रकटतारूप मोक्ष के लिये दान-पूजा - तपश्चरण आदि करना, वही निष्कांक्षित गुण कहलाता है । इस गुण में अनन्तमती की कथा प्रसिद्ध है । दूसरी सीतादेवी की कथा है । उसको कहते हैं -लोक की निन्दा को दूर करने के लिये सीता अग्नि कुण्ड में प्रविष्ट होकर जब निर्दोष सिद्ध हुई, तब श्री रामचन्द्र द्वारा दिए गए पट्ट-महारानी पद को छोड़कर. केवलज्ञानी श्री सकलभूषण मुनि के पादमूल में, कृतान्तवक्र आदि राजाओं तथा बहुत सी रानियों के साथ, जिनदीक्षा. ग्रहण करके शशिप्रभा आदि आर्यिकाओं के समूह सहित ग्राम, पुर, खेटक आदि में विहार
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