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१५६ ] बृहद्रव्यसंग्रहः
[गाथा ३८ भविष्यतीति ? तत्र परिहारः -यथा भावितकालसमयानां क्रमेण गच्छतां यद्यपि भाविकालसमयराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति । तथा मुक्तिं गच्छतां जीवानां यद्यपि जीवराशेः स्तोकत्वं भवति तथाप्यवसानं नास्ति । इति चेत्तर्हि पूर्वकाले बहवोऽपि जीवा मोक्षं गता इदानीं जगतः शून्यत्वं किं न दृश्यते । किश्चाभव्यानामभव्यसमानभव्यानां च मोक्षो नास्ति कथं शुन्यत्वं भविष्यतीति ॥.३७ ॥ एवं संक्षेपेण मोक्षतचव्याख्यानेनैकसूत्रेण पञ्चमं स्थलं गतम् ।
अतः ऊर्ध्व षष्ठमस्थले गाथापूर्वार्धन पुण्यपापपदार्थद्वयस्वरूपमुत्तरार्धेन च पुण्यपापप्रकृतिसंख्यां कथयामीत्यभिप्रायं मनसि धृत्वा भगवान् सूत्रमिदम् प्रतिपादयति :
सुहअसुहभावजुत्ता पुण्णं पावं हवंति खलु जीवा । सादं सुहाउ णामं गोदं पुण्णं पराणि पावं च ॥ ३८ ॥
शुभाशुभभावयुक्ताः पुण्यं पापं भवन्ति खलु जीवाः। A सातं शुभायुः नाम गोत्रं पुण्यं पराणि पापं च ॥ ३८ ॥
बिलकुल शून्य हो जायेगा ? इसका परिहार-जैसे भविष्यत् काल सम्बन्धी समयों के क्रम से जाने पर यद्यपि भविष्यत्काल के समयों की राशि में कमी होती है फिर भी उस का अंत नहीं होगा। इसी प्रकार जीवों के मुक्ति में जाने से यद्यपि जगत् में जीवराशि की न्यूनता होती है, तो भी उस जीवराशि का अन्त नहीं होगा। यदि जीवों के मोक्ष जाने से शून्यता मानते हो तो पूर्वकाल में बहुत जीव मोक्ष गये हैं, तब भी इस समय जगत् में जीवों की शून्यता क्यों नहीं दिखाई पड़ती ? अर्थात् शून्यता नहीं हुई। और भी-अभव्य जीवों तथा अभव्यों के समान दूरानदूर भव्य जीवों का मोक्ष नहीं है। फिर जगत् की शून्यता कैसे होगी ॥ ३७॥ इस प्रकार संक्षेप से मोक्षतत्त्व के व्याख्यान रूप एक सूत्र से पंचम स्थल समाप्त हुआ।
अब इसके आगे छठे स्थल में "गाथा के पूर्वार्ध से पुण्य पाप रूप दो पदार्थों को और उत्तरार्ध से पुण्य प्रकृति तथा पाप प्रकृतियों की संख्या को कहता हूं" इस अभिप्राय को मन में रखकर, भगवान् इस सूत्र का प्रतिपादन करते हैं :
गाथार्थ :-शुभ तथा अशुभ परिणामों से युक्त जीव, पुण्य-पाप रूप होते हैं। सातावेदनीय, शुभ-आयु, शुभ-नाम तथा उच्च-गोत्र, ये पुण्य प्रकृतियाँ हैं। शेष सब पाप . प्रकृतियाँ हैं ॥३८॥
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