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गाथा ३८ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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व्याख्या - " पुरणं पावं हवंति खलु जीवा" चिदानन्दै कसहज शुद्धस्वभावत्वेन पुण्यपापबन्धमोक्षादिपर्याय रूपविकल्परहिता अपि सन्तानागताना दिकर्म - बन्धपर्यायेण पुण्यं पापं च भवन्ति खलु स्फुटं जीवाः । कथंभूताः सन्तः १ "सुहअसुहभावजुत्ता" 'उद्वममिथ्यात्वविषं भावय दृष्टिं च कुरु परां भक्तिम् । भावनमस्काररतो ज्ञाने युक्तो भव सदापि । १ । पञ्चमहाव्रतरक्षां कोपचतुष्कस्य निग्रहं परमम् | दुर्दान्तेन्द्रियविजयं तपः सिद्धिविधौ कुरुद्योगम् । २ ।' इत्यार्याद्वयकथित। लक्षणेन शुभोपयोगभावेन परिणामेन तद्विलक्षणेनाशुभोपयोगपरिणामेन च युक्ताः परिणताः । इदानीं पुण्यपापभेदान् कथयति “सादं सुहाउ णामं गोदं पुराणं " सद्वेद्यशुभायुर्नामगोत्राणि पुण्यं भवति "पराणि पावं च" तस्मादपराणि कर्माणि पापं चेति । तद्यथा सवेद्यमेकं तिर्यग्मनुष्य देवायुस्त्रयं सुभगयश:कीर्त्तितीर्थ करत्वादिनामप्रकृतीनां सप्तत्रिंशत्, तथोच्चैर्गोत्रमिति समुदायेन द्वित्वारिंशत्संख्याः पुण्यप्रकृतयो विज्ञेयाः । शेषा द्वन्यशीतिपापमिति । तत्र 'दर्शनविशुद्धिर्विनयसंपन्नता शीलवतेष्वनतिचारोऽभीक्ष्णज्ञानोपयोगसंवेगौ शक्तितस्त्याग
"
वृत्त्यर्थ :- “पुरणं पावं हवंति खलु जीवा” चिदानन्द एक - सहज - शुद्ध - स्वभाव से यह जीव, पुण्य-पाप, बंध-मोक्ष आदि पर्याय रूप विकल्पों से रहित है, तो भी परम्परा - अनादि कर्मबन्ध पर्याय से पुण्य-पाप रूप होते हैं। कैसे होते हुए जीव पुण्य-पाप को धारण करते हैं ? "सुहअसुहभावजुत्ता", "मिध्यात्व रूपी विष का वमन करो, सम्यग्दर्शन की भावना करो, उत्कृष्ट भक्ति करो और भाव नमस्कार में तत्पर होकर सदा ज्ञान में लगे रहो । १ । पाँच महाव्रतों का पालन करो, क्रोध आदि चार कषायों का पूर्णरूप से निग्रह करो, प्रबल इन्द्रियों को विजय करो तथा बाह्य - अभ्यन्तर तप को सिद्ध करने में उद्योग करो । २ ।” इस प्रकार दोनों आर्याछन्दों में कहे हुए लक्षण सहित शुभ उपयोग रूप परिणाम से तथा उसके विपरीत अशुभ उपयोग रूप परिणाम से युक्त जीव, पुण्य-पाप को धारण करते हैं अथवा स्वयं पुण्य-पाप रूप हो जाते हैं । अब पुण्य तथा पाप के भेदों को कहते हैं । "सादं सुहाउ णामं गोदं पुराणं" साता वेदनीय, शुभ आयु, शुभ नाम और उच्च गोत्र ये कर्म तो पुण्य रूप हैं । “पराणि पावं च" इनसे भिन्न शेष पाप कर्म हैं। इस प्रकार - सातावेदनीय एक, तिथंच - मनुष्य- देव ये तीन आयु, सुभग-यशः कीर्ति - तीर्थंकर आदि नाम कर्म की सेंतीस और उच्च गोत्र ऐसे समुदाय से ४२ पुण्य प्रकृतियाँ जाननी चाहियें। शेष ८२ पाप प्रकृतियाँ हैं ।
' दर्शनविशुद्धि १, विनयसंपन्नता २, शील और व्रतों का अतिचार रहित आचरण ३, निरन्तर ज्ञान उपयोग ४, संवेग ५, शक्ति अनुसार त्याग ६, शक्ति अनुसार तप ७, साधु
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