________________
गाथा ३८] द्वितीयोऽधिकारः
[ १५६ प्राप्य विमानपरिवारादिसंपदं जीर्णतृणमिव गणयन् पञ्चमहाविदेहेषु गत्वा पश्यति। किं पश्यतीति चेत्--तदिदं समवसरणं, त एते वीतरागसर्वज्ञाः, त एते भेदाभेदरत्नत्रयाराधका गणधरदेवादयो ये पूर्व श्रयन्ते त इदानीं प्रत्यक्षेण दृष्टा इति मत्वा विशेषेण दृढधर्ममतिर्भूत्वा चतुर्थगुणस्थानयोग्यामात्मनो भावनामपरित्यजन् भोगानुभवेऽपि सति धर्मध्यानेन कालं नीत्वा स्वर्गादागत्य तीर्थकरादिपदे प्राप्तेऽपि पूर्वभवभावितविशिष्टभेदज्ञानवासनावलेन मोहं न करोति ततो जिनदीक्षां गृहीत्वा पुण्यपापरहितनिजपरमात्मध्यानेन मोक्षं गच्छतीति । मिथ्यादृष्टिस्तु तीव्रनिदानवन्धपुण्येन भोगं प्राप्य पश्चादर्द्धचक्रवर्तिरावणादिवन्नरकं गच्छतीति । एवमुक्तलक्षणपुण्यपापपदार्थद्वयेन सह पूर्वोक्तानि सप्तच्चान्येव नव पदार्था भवन्तीति ज्ञातव्यम् । इति श्रीनेमिचन्द्रसैद्धान्तिकदेवविरचिते द्रव्यसंग्रहग्रन्थे "आसवबंधण" इत्यादि एका सूत्रगाथा तदनन्तरं गाथादशकेन स्थलषट्कं चेति समुदायेनैकादशसूत्रैः . सप्ततत्वनवपदार्थप्रतिपादकनामा द्वितीयोमहाधिकारः समाप्तः ॥ २॥
को जीर्ण तृण के समान गिनता हुआ पञ्च महाविदेहों में जाकर देखता है। प्रश्न-क्या देखता है ? उत्तर-वह यह समवसरण है, वे ये वीतराग सर्वज्ञ भगवान् हैं, वे ये भेदअभेद रत्नत्रय के आराधक गणधर देव आदि हैं; जो पहले सुने थे, वे आज प्रत्यक्ष देखे, ऐसा मानकर धर्म-बुद्धि को विशेष दृढ़ करके चौथे गुणस्थान के योग्य आत्मभावना को न छोड़ता हुआ, भोग भोगता हुआ भी धर्मध्यान से काल को पूर्ण कर, स्वर्ग से आकर, तीर्थकर आदि पद को प्राप्त होता है, तो भी पूर्व जन्म में भावित विशिष्ट-भेदज्ञान की वासना के बल से मोह नहीं करता. अतः जिन-दीक्षा धारण कर पुण्य-पाप से रहित निज परमात्मध्यान के द्वारा मोक्ष जाता है । मिथ्यादृष्टि तो, तीव्र निदानबंध वाले पुण्य से भोग प्राप्त करने के पश्चात् अर्ध-चक्रवर्ती रावण आदि के समान नरक को जाता है। एवं उक्त लक्षण वाले पुण्य-पाप रूप दो पदार्थ सहित पूर्वोक्त सात तत्त्व ही : पदार्थ हो जाते हैं। ऐसा जानना चाहिए ।। ३८ ॥ इस प्रकार श्री नेमिचन्द्र सिद्धान्तीदेव-विरचित द्रव्यसंग्रह ग्रन्थ में 'आसव-बंधण' अादि एक सूत्रगाथा, तदनंतर १० गाथाओं द्वारा ६ स्थल, इस तरह समुदाय रूप से ११ गाथाओं द्वारा सात तत्त्व, नो पदार्थ प्रतिपादन
करने वाला दूसरा महा अधिकार समाप्त हुआ ॥२॥
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org