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गाथा ३७] द्वितीयोऽधिकारः
[ १५५ इति गाथाकथितलब्धिपञ्चकसंज्ञेनाध्यात्मभाषया निजशुद्धात्माभिमुखपरिणामसंज्ञेन च निर्मलभावनाविशेषखड्गेन पौरुषं कृत्वा कर्मशत्रु हन्तीति । यत्पुनरन्तः कोटाकोटीप्रमितकर्मस्थितिरूपेण तथैव लतादारुस्थानीयानुभागरूपेण च कर्मलघुत्वे जाते अपि सत्ययं जीव आगमभाषया अधःप्रवृत्तिकरणापूर्वकरणानिवृत्तिकरणसंज्ञामध्यात्मभाषया स्वशुद्धात्माभिमुखपरिणतिरूपां कर्महननबुद्धिं कापि काले न करिष्यतीति तदभव्यत्वगुणस्यैव लक्षणं ज्ञातव्यमिति । अन्यदपि दृष्टान्तनवकं मोक्षविषये ज्ञातव्यम् -- "रयण दीव दिणयर दहिउ दुद्धउ घीव पहाणु । सुगगुरुप्पफलिहउ अगणि, णव दिढता जाणि । १।" नन्वनादिकाले मोक्षं गच्छता जीवानां जगच्छून्यं
है। १।' इस गाथा में कही हुई पांच लब्धियों से और अध्यात्म भाषा में निज शुद्ध-आत्मा के सम्मुख परिणाम नामक निर्मल भावना विशेष रूप खड़ग से पौरुष करके, कर्म शत्रु को नष्ट करता है । अन्तः-कोटाकोटि-प्रमाण कर्मस्थिति रूप तथा लता व काष्ठ के स्थानापन्न अनुभाग रूप से कर्मभार हलका होजाने पर भी यदि यह जीव आगम भाषा से अधःप्रवृत्तिकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक और अध्यात्म भाषा से स्वशुद्ध-आत्मसन्मुख परिणाम रूप ऐसी कर्मनाशक बुद्धि को किसी भी समय नहीं करेगा, तो यह अभव्यत्व गुण का लक्षण जानना चाहिए। अन्य भी नौ दृष्टान्त मोक्ष के विषय में जानने योग्य हैं।
"रत्न, दीपक, सूर्य, दूध, दही, घी, पाषाण, सोना, चांदी, स्फटिकमणि और अग्नि इन नौ दृष्टांतों से जानना चाहिये। १।" ( १. रत्न-सम्यग्दर्शन ज्ञान चारित्र रूपी रत्नत्रयमयी होने से आत्मा रत्न के समान है । २. दीपक-स्व पर प्रकाशक होने से आत्मा दीपक के समान है । ३. सूर्य केवल-ज्ञानमयी तेज से प्रकाशमान होने से आत्मा सूर्य के समान है । ४. दूध दही घी-सार वस्तु होने से परमात्मा रूपी आत्मा घी के समान है। संसारी आत्मा में परमात्मा शक्ति रूप से रहता है, जैसे दूध व दही में घी रहता है। अतः संसारी आत्मा को अपेक्षा आत्मा दूध या दही के समान है। ५. पाषाण-टंकोतकीरण ज्ञायक स्वभाव होने से आत्मा पाषाण के समान है । ६. सुवर्ण-कर्म रूपी कालिमा से रहित होने से आत्मा सुवर्ण के समान है । ७. चाँदी-स्वच्छ होने से आत्मा चाँदी के समान है। ८. स्फटिक-स्फटिक, स्वभाव से निर्मल होने पर भी, हरी पीली काली डांक के निमित्त से हरी पीली काली रूप परिणम जाती है और डांक के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है। इसी प्रकार आत्मा, स्वभाव से निर्मल होने पर भी, कर्मोदय के निमित्त से राग द्वष मोह रूप परिणमती हैं और कर्म के अभाव में शुद्ध निर्मल हो जाती है, अतः आत्मा स्फटिक के समान है । ६. अग्नि-जैसे अग्नि इंधन को जलाती है, इसी प्रकार आत्मा कर्म रूपी इंधन को जलाती है, अतः आत्मा अग्नि के समान है।)
शंका-अनादि काल से जीव मोक्ष को जा रहे हैं, अतः यह जगत् कभी जीवों से
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