________________
१४२]
[ गाथा ३५
माहेन्द्रयोः साधिकसागरोपमसप्तकं ब्रह्मब्रह्मोत्तर योः साधिकसागरोपमदशकं, लान्तवकापिष्टयोः साधिकानि चतुर्दशसागरोपमानि शुक्रमहाशुक्रयोः षोडश साधिकानि, शतारसहस्रारयोरष्टादश साधिकानि आनतप्राण तयोर्विंशतिरेव, आरणाच्युतयोर्द्वाविंशतिरिति । अतः परमच्युतादूर्ध्वं कल्पातीत नवग्र वेयकेषु द्वाविंशतिसागरोपम प्रमाणादूर्ध्वमेकैकसागरोपमे वर्धमाने सत्येकत्रिंशत्सागरोपमान्यवसानग्र - वेयके भवन्ति । नवानुदिशपटले द्वात्रिंशत् पञ्चानुत्तरपटले त्रयस्त्रिंशत्, उत्कृष्टायुः प्रमाणं ज्ञातव्यम् । तदायुः सौधर्मादिषु स्वर्गेषु यदुत्कृष्टं तत्परस्मिन् परस्मिन् स्वर्गे सर्वार्थसिद्धिं विहाय जघन्यं चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं त्रिलोकसारादौ बोद्धव्यम् ।
"
।
वृहद्रव्यसंग्रहः
किञ्च - आदिमध्यान्तमुक्ते शुद्धबुकस्वभावे परमात्मनि सकल विमल केवलज्ञानलोचनेनादर्शे विम्बानीव शुद्धात्मादिपदार्था लोक्यन्ते दृश्यन्ते ज्ञायन्ते परिच्छिद्यन्ते । यतस्तेन कारणेन स एव निश्चयलोकस्तस्मिन्निश्चय लोकाख्ये स्वकीयशुद्ध
तथा ईशान स्वर्ग के देवों की जघन्य आयु कुछ अधिक एक पल्य और उत्कृष्ठ कुछ अधिक दो सागर है । सानत्कुमार तथा माहेन्द्र देवों में कुछ अधिक सात सागर, ब्रह्म और ब्रह्मोत्तर में कुछ अधिक दस सागर, लांतव कापिष्ट में कुछ अधिक चौदह सागर, शुक्र महाशुक्र में कुछ अधिक सोलह सागर, शतार और सहस्रार में किंचित् अधिक अठारह सागर, आनत तथा प्राणत में पूरे बीस ही सागर और आरण अच्युत में बाईस सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है । इसके अनंतर अच्युत स्वर्ग से ऊपर कल्पातीत नव ग्रैवेयकों तक प्रत्येक ग्रैवेयक में क्रमशः बाईस सागर से एक-एक सागर अधिक उत्कृष्ट आयु है, तदनुसार अन्त के ग्रैवेयक में इकतीस सागर की उत्कृष्ट आयु है । नव अनुदिश पटल में बत्तीस सागर और पंचानुत्तर पटल में तेंतीस सागर की उत्कृष्ट आयु जाननी चाहिये । तथा सौधर्म आदि वर्गों में जो उत्कृष्ट है, सवार्थसिद्धि के अतिरिक्त, वह उत्कृष्ट आयु अपने स्वर्ग से ऊपर-ऊपर के स्वर्ग में जघन्य आयु है । (अर्थात् जो सौधर्म ईशान स्वर्ग में कुछ अधिक दो सागर प्रमाण उत्कृष्ट आयु है, वह सानत्कुमार माहेन्द्र में जघन्य है । इस क्रम से सर्वार्थसिद्धि के पहले २ जघन्य आयु है ।) शेष विशेष व्याख्यान त्रिलोकसार आदि से जानना चाहिए ।
विशेष – आदि मध्य तथा अन्तरहित, शुद्ध-बुद्ध - एक स्वभाव परमात्मदेव में पूर्ण विमल केवल ज्ञानमयी नेत्र है, उसके द्वारा जैसे दर्पण में प्रतिविम्बों का भान होता है उसी प्रकार से शुद्ध आत्मा आदि पदार्थ देखे जाते हैं, जाने जाते हैं, परिच्छिन्न किये जाते हैं। इ कारण वह निज शुद्ध आत्मा ही निश्चय लोक है, अथवा उस निश्चय लोक वाले निज शुद्ध परमात्मा में जो अवलोकन है वह निश्चय लोक है । 'संज्ञा, तीन लेश्या, इन्द्रियों के वश
Jain Education International
For Personal & Private Use Only
www.jainelibrary.org