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गाथा ३६ ]
द्वितीयोऽधिकारः
[ १४६ स्थानां यतीनां तयैव पूर्यते तत्रासमर्थानां पुनर्वहुप्रकारेण संवरप्रतिपक्षभूतो मोहो विजृम्भते, तेन कारणेन व्रतादिविस्तरं कथयन्त्याचार्याः "सिदिसदं किरियाणं
किरियाणं तु होइ चुलसीदी। सत्तट्ठी श्राणीणं वेराइयाणं हुंति बत्तीसं । १ । जोगा पर्यापदेसा ठिदिभागा कसायदो हुंति । अपरिणदुच्छिणेसु य बंधो ठिदिकारणं थि । २ । । ३५ || एवं संवरतत्त्वव्याख्याने सूत्रद्वयेन तृतीयं स्थलं गतम् ।
अथ सम्यग्दृष्टि जीवस्य संवरपूर्वकं निर्जरातत्त्वं कथयति :
जह काले तवेण य भुत्तरसं कम्म पुग्गलं जेा ।
भावेण सडदि या तस्सडणं चेदि णिञ्जरा दुविहा ॥ ३६ ॥
यथाकालेन तपसा च भुक्तरसं कर्म्मपुद्गलं येन । भावेन सडति ज्ञेया तस्सडनं चेति निर्जरा द्विविधा ॥ ३६ ॥
व्याख्या : - 'या' इत्यादिव्याख्यानं क्रियते - ' या ' ज्ञातव्या । का ?
स्वरूप निर्विकल्प ध्यान में स्थित मुनि के तो उस संवर अनुप्रेक्षा से ही संवर हो जाता है; किन्तु उसमें असमर्थ जीवों के अनेक प्रकार से संवर का प्रतिपक्षभूत मोह उत्पन्न होता है, इस कारण आचार्य व्रत आदि का कथन करते हैं ।
क्रियावादियों के १८०, अक्रियावादियों के ८४, अज्ञानियों के ६७ और वैनयिकों के ३२. ऐसे कुल मिलाकर तीन सौ तिरेसठ भेद पाखंडियों के हैं । १ । योग से प्रकृति और प्रदेश तथा कषाय से स्थिति और अनुभाग बंध होता है और जिसके कषाय का उदय नहीं
तथा कषायों का क्षय हो गया है, ऐसे उपशांत कषाय व क्षीण कषाय और सयोगकेवली हैं उनमें तत्काल (एक समय वाला) बंध स्थिति का कारण नहीं है | २|' || ३५ || इस प्रकार संवर तत्व के व्याख्यान में दो सूत्रों द्वारा तृतीय स्थल समाप्त हुआ ।
अब सम्यग्दृष्टि जीव के संवर-पूर्वक निर्जरा तत्त्व को कहते हैं
गाथार्थ :- आत्मा के जिस भाव से यथा समय ( उदय काल में ) अथवा तप द्वारा फल देकर कर्म नष्ट होता है, वह भाव (परिणाम) भावनिर्जरा है और कर्म पुद्गलों का झड़ना, गलना द्रव्य निर्जरा है । भावनिर्जरा व द्रव्यनिर्जरा की अपेक्षा निर्जरा दो प्रकार है ॥ ३६ ॥
वृत्त्यर्थ :- 'णेया' इत्यादि सूत्र का व्याख्यान करते हैं। 'ऐया' जानना चाहिये ।
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