Book Title: Bruhad Dravya Sangraha
Author(s): Bramhadev
Publisher: Ganeshprasad Varni Digambar Jain Sansthan

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Page 171
________________ १५० ] वृहद्र्व्यसंग्रहः [ गाथा ३६ 'णिजरा' भाव निर्जरा । सा का ? निर्विकारपरमचैतन्यचिच्चमत्कारानुभूतिसञ्जातसहजानन्दस्वभावसुखामृतरसास्वादरूपो भाव इत्याध्याहारः। 'जेण भावण' येन भावेन जीवपरिणामेन । किं भवति 'सडदि' विशीर्यते पंतति गलति विनश्यति । किं कत ? 'कम्मपुग्गलं' कर्मारिविध्वंसकस्वकीयशुद्धात्मनो विलक्षणं कर्मपुद्गलद्रव्यं । कथंभूतं ? 'भुत्तरसं' स्वोदय कालं प्राप्य सांसारिकसुखदुःखरूपेण भुत्तरसं दत्तफलं । केन कारणभूतेन गलति ? 'जहकालेण' स्वकालपच्यमानाम्रफलवत्सविपाकनिर्जरापेक्षया, अभ्यन्तरे निजशुद्धात्मसंवित्तिपरिणामस्य बहिरंगसहकारिकारणभूतेन काललब्धिसंज्ञेन यथाकालेन, न केवलं यथाकालेन “तवेण य" अकालपच्यमानानामानादिफलवदविपाकनिर्जरापेक्षया, अभ्यन्तरेण समस्तपरद्रव्येच्छानिरोधलक्षणेन बहिरंगेणान्तस्तत्त्वसंवित्तिसाधकसंभूतेनानशनादिद्वादशविधेन तपसा चेति । “तस्सडणं" कर्मणो गलनं यच्च सा द्रव्यनिर्जरा । ननु पूर्व यदुक्तं 'सडदि' तेनैष द्रव्यनिर्जरा लब्धा, पुनरपि 'सडणं' किमर्थ भणितम् ? तत्रोत्तरम्तेन सडदिशब्देन निर्मलात्मानुभूतिग्रहणभावनिर्जराभिधानपरिणामस्य सामर्थ्यमुक्तं, न च द्रव्यनिर्ज रेति । "इदि दुविहा" इति द्रव्यभावरूपेण निर्जरा द्विविधा भवति। किसको ? 'णिजरा' भाव निर्जरा को । वह क्या है ? निर्विकार परम चेचन्य चित्-चमत्कार के अनुभव से उत्पन्न सहज-आनन्द-स्वभाव सुखामृत के आस्वाद रूप, वह भाव निर्जरा है। यहाँ 'भाव' शब्द का अध्याहार ( विवक्षा से ग्रहण ) किया गया है। 'जेण भावेण' जीव के जिस परिणाम से क्या होता है ? 'सडदि' जीर्ण होता है, गिरता है, गलता है अथवा नष्ट होता है । कौन ? 'कम्मपुग्गलं' कर्म शत्रुओं का नाश करने वाले निज शुद्धआत्मा से विलक्षण कर्मरूपी पुद्गल द्रव्य । कैसा होकर ? 'भुत्तरसं' अपने उदयकाल में जीव को सांसारिक सुख तथा दुःख रूप रस देकर । किस कारण गलता है ? 'जहकालेण' अपने समय पर पकने वाले आम के फल के समान सविपाक निर्जरा की अपेक्षा, अन्तरंग में निज-शुद्ध-आत्म-अनुभव रूप परिणाम के बहिरंग सहकारी कारणभूत काललब्धि रूप यथा समय गलते हैं, मात्र यथा काल से ही नहीं गलते किन्तु 'तवेण य' बिना समय पके हुए आम आदि फलों के सदृश, अविपाक निर्जरा की अपेक्षा, समस्त परद्रव्यों में इच्छा के रोकने रूप अभ्यंतर तप से और आत्म-तत्व के अनुभव को साधने वाले उपवास आदि बारह प्रकार के बहिरंग तप से भी गलते है । 'तस्सडणं' उस कर्म का गलना द्रव्य निर्जरा है । शंका-आपने जो पहले 'सडदि' ऐसा कहा है उसी से द्रव्यनिर्जरा प्राप्त हो गई, फिर 'सडणं' इस शब्द का दुबारा कथन क्यों किया ? समाधान-पहले जो 'सडदि' शब्द कहा गया है, उससे निर्मल आत्मा के अनुभव को ग्रहण करने रूप भाव निर्जरा नामक परिणाम की सामर्थ्य कही गई है, द्रव्य निर्जरा का कथन नहीं किया गया । 'इदि दुविहा' इस प्रकार द्रव्य और भाव स्वरूप से निर्जरा दो प्रकार की जाननी चाहिये। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org

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