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गाथा ३५] द्वितीयोऽधिकारः
[ १४७ समस्तहिंसानृतस्तेयाब्रह्मपरिगहेभ्यो विरतिव्रतमित्यनेन पञ्चप्रकारविकल्पभेदेन व्रतच्छेदेन रागादिविकल्परूपसावधेभ्यो निवर्त्य निजशुद्धात्मन्यात्मानमुपस्थापयतीति छेदोपस्थानम् । अथवा छेदे व्रतखण्डे सति निर्विकारस्वसंवित्तिरूपनिश्चयप्रायश्चिचेन तत्साधकबहिरङ्गव्यवहारप्रायश्चित्तेन वा स्वात्मन्युपस्थापनं छेदोपस्थापनमिति । अथ परिहारविशुद्धिं कथयति-"तीसं वासो जम्मे वासपुधत्तं च तित्थयरमूले । पच्चक्खाणं पढिदो संज्झूण दुगाउ य विहारो । १।" इति गांथाकथितक्रमेण मिथ्यात्वरागादिविकल्पमलानां प्रत्याख्यानेन परिहारेण विशेषेण स्वात्मनः शुद्धिनॅमल्यं परिहारविशुद्धिश्चारित्रमिति । अथ सूक्ष्मसाम्परायचारित्रं कथयति । सूक्ष्मातीन्द्रियनिजशुद्धोत्मसंवित्तिबलेन सूक्ष्मलोभाभिधानसाम्परायस्य कषायस्य यत्र निरवशेषोपशमनं क्षपणं वा तत्सूक्ष्मसाम्परायचारित्रमिति । अथ यथाख्यातचारित्रं कथयति-यथा सहजशुद्धस्वभावत्वेन निष्कम्पत्वेन निष्कषायमात्मस्वरूपं तथैवाख्यातं कथितं यथाख्यातचारित्रमिति ।
इदानीं सामायिकादिचारित्रपञ्चकस्य गुणस्थानस्वामित्वं कथयति । प्रमत्ताप्रमत्तापूर्वानिवृत्तिसंज्ञगुणस्थानचतुष्टये सामायिकचारित्रं भवति छेदोपस्थाप
भेद विकल्प रूप व्रतों का छेद होने से राग आदि विकल्परूप सावधों से अपने आपको छुड़ा कर निज शुद्ध आत्मा में अपने को उपस्थापन करना छदोपस्थापना है। अथवा छेद अर्थात् व्रत का भंग होने पर निर्विकार निज आत्मानुभवरूप निश्चय प्रायश्चित के बल से और उसके साधकरूप बहिरङ्ग व्यवहार प्रायश्चित्त से निज आत्मा में स्थित होना, छेदोपस्थापन है । परिहार विशुद्धि को कहते हैं-'जो जन्म से ३० वर्ष सुख से व्यतीत करके वर्षपृवक्त्व (८ वर्ष ) तक तीर्थंकर के चरणों में प्रत्याख्यान नामक नौवें पूर्व को पढ़कर तीनों संध्याकालों को छोड़कर प्रतिदिन दो कोस गमन करता है । १।' इस गाथा में कहे क्रम अनुसार मिथ्यात्व, राग आदि विकल्प मलों का प्रत्याख्यान अर्थात् त्याग करके विशेष रूप से जो
आत्म-शुद्धि अथवा निर्मलता, सो परिहार विशुद्धि चारित्र है। अब सूक्ष्म-सांपराय चारित्र को कहते हैं-सूक्ष्म अतिन्द्रिय निज शुद्ध आत्म-अनुभव के बल से सूक्ष्म-लोभ नामक सांपराय-कषाय का पूर्णरूप से उपशमन अथवा क्षपण (क्षय ), सो सूक्ष्म-सांपराय चारित्र है। अब यथाख्यात चारित्र को कहते हैं-जैसा निष्कंप सहज शुद्ध-स्वभाव से कषाय रहित आत्मा का स्वरूप है, वैसा ही आख्यात अर्थात् कहा गया, सो यथाख्यात चारित्र है।
अब गुणस्थानों में सामायिक आदि पाँच प्रकार के चारित्र का कथन करते हैंप्रमत्त, अप्रमत्त, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण नामक चार गुणस्थानों में सामायिकछेदोपस्थापन ये दो चारित्र होते हैं । परिहार विशुद्धि चारित्र--प्रमत्त, अप्रमत्त इन दो गुण
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