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१४४] वृहद्रव्यसंग्रह
[ गाथा ३५ परिणामबहुलता लोकस्य विपुलता, महामहती। योनिविपुलता च कुरुते सुदुर्लभां मानुषीं योनिम् । १ ।" बोधिसमाधिलक्षणं कथ्यते- सम्यग्दर्शनज्ञान चारित्राणामप्राप्तप्रापणं बोधिस्तेषामेव निर्विघ्नेन भवान्तरप्रापणं समाधिरिति । एवं संक्षे पेण दुर्लभानुप्रेक्षा समाप्ता । ११ ।
अथ धर्मानुप्रेक्षां कथयति । तद्यथा-संसारे पतन्तं जीवमुद्धृत्य नागेन्द्रनरेन्द्रदेवेन्द्रादिवन्ये अव्यावाधानंतसुखाद्यननंतगुणलक्षणे मोक्षपदे धरतीति धर्मः । तस्य च भेदाः कथ्यन्ते-अहिमालक्षणः सागारानगारलक्षणो वा उत्तमक्षमादिलक्षणो वा निश्चयवहाररत्नत्रयात्मको वा शुद्धात्मसंविच्यात्मकमोहक्षोभरहितात्मपरिणामो वा धर्मः। अस्य धर्मस्यालामेऽतीतानन्तकाले "णिच्चदरधाउसत्त य तरुदस वियलेंदियेसु छच्चेव । सुरणिरयतिरियचउरो चउदस मणुयेसु सदसहस्सा । १।" इति गाथाकथितचतुरशीतियोनिलक्षेषु मध्ये परमस्वास्थ्यभावनोत्पन्ननिर्व्याकुलपारमार्थिकसुखविलक्षणानि पञ्चेन्द्रियसुखाभिलाषजनितव्याकुलत्वोत्पादकानि दुःखानि
होता है वह बेचारा संसाररुपी भयंकर वन में चिरकाल तक भ्रमण करता है । १।" मनुष्यभव की दुर्लभता के विषय में भी कहा है-'अशुभ परिणामों की अधिकता, संसार की विशालता और बड़ी २ योनियों की अधिकता, ये सब बातें मनुष्य योनि को दुर्लभ बनाती है।' बोधि व समाधि का लक्षण कहते हैं-पहले नहीं प्राप्त हुए सम्यग्दर्शन, सम्यग्ज्ञान, सम्यक चारित्र का प्राप्त होना तो बोधि कहलाती है, और उन्हीं सम्यग्दर्शन आदिकों को निर्विघ्न अन्य भव में साथ ले जाना सो समाधि है । इस प्रकार संक्षेप से दुर्लभ-अनुप्रेक्षा का कथन समाप्त हुा । ११ ।
__अब धर्मानुप्रेक्षा को कहते हैं। संसार में गिरते हुए जीव को उठाकर, धरणेन्द्र, चक्रवर्ती, देव, इन्द्र आदि द्वारा पूज्य अथवा बाधारहित अनन्त सुख आदि अनन्त-गुणरूप मोक्ष पद में जो धरता है वह धर्म है । उस धर्म के भेद कहे जाते हैं---अहिंसा लक्षणवाला, गृहस्थ और मुनि इन लक्षण वाला, उत्तम क्षमा आदि लक्षण वाला, निश्चय और व्यवहार रत्नत्रय-स्वरूप अथवा शुद्ध आत्मानुभवरूप मोह-क्षोभरहित आत्म-परिणाम वाला धर्म है। परम-स्वास्थ्य-भावना से उत्पन्न व व्याकुलतारहित पारमार्थिक सुख से विलक्षण तथा पांचों इन्द्रियों के सुखों की वांछा से उत्पन्न और व्याकुलता करने वाले दुःखों को सहते हुए, इस जीव ने ऐसे धर्म की प्राप्ति न होने से 'नित्यनिगोद वनस्पति में सात लाख, इतर निगोद वनस्पति में सात लाख, पृथ्वीकाय में सात लाख, जलकाय में सात लाख, तेजकाय में सात लाख, वायुकाय में सात लाख, प्रत्येक वनस्पति में दस लाख, वे इंद्रिय तेइंद्रिय व चौइंद्रिय में दो-दो लाख, देव नारकी व तिथंच में चार-चार लाख तथा मनुष्यों में चौदह
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