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गाथा ३५ ]
द्वितीयोऽधिकारः
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प्रमाण उत्कर्षेणादित्यविमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो शेयः । तत्र पुनरष्टादशमुहूर्तैर्दिवसो भवति द्वादशमुहूर्ते रात्रिरिति । ततः क्रमेणातपहानौ सत्यां मुहूर्तद्वयस्यैकषष्टिभागीकृतस्यैको भागो दिवसमध्ये दिनं प्रति हीयते यावल्लवण समुद्र े ऽवसानमार्गे माघमासे मकरसंक्रान्तावुत्तरायणदिवसे त्रिषष्टिसहस्राधिकषोडशयोजनप्रमाणो जघन्येनादित्य विमानस्य पूर्वापरेणातपविस्तारो भवति । तथैव द्वादशमुहूतैर्दिवसो भवत्यष्टादशमुहूर्ते रात्रिश्चेति । शेषं विशेषव्याख्यानं लोकविभागादौ विज्ञेयम् ।
ये तु मनुष्यक्षेत्राद्वहिर्भागे ज्योतिष्क विमानास्तेषां चलनं नास्ति । ते च मानुषोत्तरपर्वताद्वहिर्भागे पञ्चाशत्सहस्राणि योजनानां गत्वा वलयाकारं पंक्तिक्रमेण पूर्वक्षेत्रं परिवेष्ठन्य तिष्ठन्ति । तत्र प्रथमवलये चतुश्चत्वारिंशदधिकशतप्रमाणाश्चन्द्रास्तथादित्याश्चान्तरान्तरेण तिष्ठन्ति । ततः परं योजनलक्षे लक्षे गते तेनैव क्रमेण वलयं भवति । प्रयन्तु विशेषः – वलये वलये चन्द्रचतुष्टयं सूर्यचतुष्टयं च वर्धते यावत्पुष्करार्धवहिर्भागे वलयाष्टकमिति । ततः पुष्करसमुद्र प्रवेशे वेदिकायाः
कर्कट संक्रान्ति के दिन दक्षिणायन के प्रारम्भ में सूर्य प्रथम मार्ग की परिधि में होता है, तब सूर्य - विमान के तप ( धूप ) का पूर्ण-पश्चिम फैलाव चौरानवे हजार पांच सौ पच्चीस योजन प्रमाण होता है, ऐसा जानना चाहिये। उस समय अठारह मुहूतों का दिन और बारह मुहूतों की रात्रि होती है । फिर यहाँ से क्रम-क्रम से आप की हानि होने पर दो मुहूतों के इकसठ भागों में से एक भाग प्रतिदिन दिवस घटता है । यह तब तक घटता है। जब तक कि लवणसमुद्र के अन्तिम मार्ग में माघ मास में मकर संक्रांति में उत्तरायण दिवस के प्रारम्भ में जघन्यता से सूर्य - विमान के आतप का पूर्ण-पश्चिम विस्तार त्रेसठ हजार सोलह योजन प्रमाण होता है । उसी प्रकार इस समय बारह मुहूप्तों का दिन और अठारह मुहूत की रात्रि होती है । अन्य विशेष वर्णन लोकविभाग आदि से जानना चाहिये ।
मनुष्य क्षेत्र से बाहर ज्योतिष्क - विमानों का गमन नहीं है । वे मानुषोत्तर पत के बाहर पचास हजार योजन जाने पर, वलयाकार (गोलाकार) पंक्ति-क्रम से पहिले क्षेत्र को बेढ़ (घेर) कर रहते हैं । वहाँ प्रथम वलय में एक सौ चवालीस चन्द्रमा तथा सूर्य परस्पर अन्तर (फासले) से तिष्ठित हैं । उसके आगे एक-एक लाख योजन जाने पर इसी क्रमानुसार एक-एक वलय होता है ! विशेष यह है - प्रत्येक वलय में चार-चार चन्द्रमा तथा चार-चार सूर्यों की वृद्धि पुष्करार्ध के वाह्य भाग में आठवें वलय तक होती है; उसके बाद पुष्कर समुद्र के प्रवेश में स्थित वेदिका से पचास हजार योजन प्रमाण जलभाग में जाकर, प्रथम वलय में,
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