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१३६] वृहद्रव्यसंग्रहः
[ गाथा ३५ प्रत्यक्षेण दृष्ट्वा अयोध्यानगरीस्थितो निर्मलसम्यक्त्वानुरागेण भरतचक्री पुष्पाञ्जलिमुत्क्षिप्योध्यं ददातीति । तन्मार्गस्थितभरतक्षेत्रादित्यस्यैराक्तादित्येन सह तथापि चन्द्रास्यान्यचंद्ररेण सह यदन्तरं भवति तद्विशेषेणागमतो ज्ञातव्यम् ।
अथ “सदभिस भरणी अद्दा सादी असलेस्स जेट्टमवर क्रा । गेहिणि विसाह. पुणबस तिउत्तरा मज्झिमा सेसा । १।" इति गाथाकथितक्रमेण यानि जघन्योत्कृष्टमअमनचत्राणि तेषु मध्ये कस्मिन्नक्षत्रे कियन्ति दिनान्यादित्यस्तिष्ठतीति । "इंदुरवीदो रिक्खा सत्तहि पंच गगणखंडहिया । अहियद्विदरिक्खखंडा रिक्खे इंदुरवीअथएणमुहुत्ता । १।" इत्यनेन गाथासुत्रेणागमकथितक्रमेण पृथक् पृथगानीय मेलापके कृते सति षडधिकषष्टियुतत्रिंशतसंख्यदिनानि भवन्ति । तस्य दिनसमूहाधस्य यदा द्वीपाभ्यन्तरादक्षिणेन बहिर्भागेषु दिनकरो गच्छति तदा दक्षिणायनसंज्ञा; यदा पुनः समुद्रात्सकाशाद्त्तरेणाभ्यन्तरमार्गेषु समायाति तदोत्तरायणसंज्ञेति । तत्र यदा द्वीपाभ्यन्तरे प्रथममार्गपरिधौ कर्कटसंक्रान्तिदिने दक्षिणायनप्रारम्भे तिष्ठत्यादित्यस्तदा चतुर्णवतिसहस्रपञ्चविंशत्यधिकपञ्चयोजनशत
निर्मल सम्यक्त्व के अनुराग से पुष्पांजलि उछालकर अर्घ देता है। उस प्रथम मार्ग में स्थित भरत क्षेत्र के सूर्य का ऐरावत क्षेत्र के सूर्य के साथ तथा चन्द्रमा का चन्द्रमा के साथ और भरत क्षेत्र के सूर्य चन्द्रमाओं का मेरु के साथ जो अन्तर (फासला) रहता है, उसका विशेष कथन आगम से जानना चाहिए।
अब “शतभिषा, भरणी, आर्द्रा, स्वाति, आश्लेषा, ज्येष्ठा, ये छः नक्षत्र जघन्य हैं। रोहिणी, विशाखा, पुनर्वासु, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा और उत्तराभाद्रपद, ये छः नक्षत्र उत्कृष्ट हैं । इनके अतिरिक्त शेष नक्षत्र मध्यम हैं।" इस गाथा में कहे हुए क्रमानुसार जो जघन्य उत्कृष्ट तथा मध्यम नक्षत्र हैं, उनमें किस नक्षत्र में कितने दिन सूर्य ठहरता है, सो कहते हैं-"एक मुहूर्त में चन्द्र १७६८, सूर्य १८३० और नक्षत्र १८३५ गगनखंडों में गमन करते हैं, इसलिये ६७ व ५ (१८३५ - १७६८=६५, १८३५ - १८३०% ५) अधिक भागों से नक्षत्रखंडों को भाग देने से जो मुहूर्त प्राप्त होते हैं, उन मुहूत्तों को चन्द्र और सूर्य के
आसन्न मुहूर्त्त जानने चाहिये । अर्थात् एक नक्षत्र पर उतने मुहूर्तों तक चन्द्रमा और सूर्य की स्थिति जाननी चाहिए । १।" इस प्रकार इस गाथा में कहे हुए क्रम से भिन्न-भिन्न दिनों को जोड़ने से तीन सौ छयासठ दिन होते हैं। जब द्वीप के भीतर से दक्षिण दिशा के बाहरी मार्गों में सूर्य गमन करता है, तब तीन सौ छयासठ दिनों के आधे एक सौ तिरासी दिनों की दक्षिणायन संज्ञा होती है और इसी प्रकार जव सूर्य समुद्र से उत्तर दिशा को अभ्यन्तर मार्गों में आता है तब शेष १८३ दिनों की उत्तरायण संज्ञा है। उनमें जब द्वीप के भीतर
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